यह पुस्तक हमें उस प्रभावशाली और दूरदर्शी आदिवासी राजनीतिज्ञ के सोच-विचार से परिचित कराती है जिसे गांधी, नेहरु, जिन्ना और अंबेडकर के मुकाबले कभी नहीं याद किया गया। उस आदिवासी व्यक्तित्व का नाम है जयपाल सिंह मुंडा। आजाद होते भारत में आदिवासी विषय और प्रतिनिधित्व पर हमारे तथाकथित ‘राष्ट्रपिता’, ‘राष्ट्रनिर्माता’ और ‘दलितों के बाबा साहेब’ कितने गंभीर थे, यह हमें जयपाल सिंह मुंडा के उन वक्तव्यों से पता चलता है जो उन्होंने संविधान निर्माण सभा में दिए थे। यह पहली किताब है जो हमें बताती है कि संविधान-सभा के 300 माननीय सदस्यों ने किस तरह से ‘आदिवासी स्वयात्तता’ का मिलजुलकर अपहरण किया। जिसके खिलाफ संविधान-सभा के भीतर जयपाल सिंह मुंडा ने अकेले राजनीतिक लड़ाई लड़ी और भारतीय राजनीति में आदिवासियत को स्थापित किया।
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