वर्तमान समाज में तन्त्र को लेकर कई प्रकार के भ्रम और शंकायें हैं। ये
वस्तुतः तन्त्र का दोष नहीं ,बल्कि तन्त्र के जानकारों की अज्ञानता है।
असली तन्त्र-साधकों और जानकारों का बिलकुल अभाव है समाज में । प्रायः
तन्त्र के नाम पर ठगी और अन्य घृणित कुकृत्य हो रहे हैं। योग भी सिर्फ
आसन-प्राणायाम तक सिमट कर रह गया है। वस्तुतः तन्त्र और योग ये दोनों ही
मोक्ष और कल्याण के विषय हैं। इन दोनों पर किंचित प्रकाश-प्रक्षेपण ही
उद्देश्य है इस रचना का । साधना की पृष्ठभूमि पर अवलम्बित इस उपन्यास को
कथा की दृष्टि से न देखकर, कथ्य पर विचार करेंगे, तो हो सकता है, कुछ
लब्ध हो जाय, कुछ सूत्र सूझ जायें, कुछ भ्रमजाल टूट जायें; जीवन को नये
अंदाज में जीने की ललक जाग जाय और मेरा श्रम सार्थक हो जाय । किन्तु हाँ,
इस उपन्यास को नियमावली या पद्धति समझकर सीधे साधना-क्षेत्र में कूद न
पड़ियेगा, अन्यथा लाभ-हानि के जिम्मेवार आप स्वयं होंगे । ज्ञान की
पुस्तकें तो बाजार में बहुत मिलती हैं, फिर भी सद्गुरु-सानिध्य में
उन्हें खोलना ही पड़ता है ...।