यह किताब एक बहुत बड़ी बहस के डॉक्युमेंटेशन का अनूठा प्रयास है। इस सम्वेदन शील विषय पर संकलन कर्ता की अपनी दृष्टि काफी स्पष्ट दिखती है। चूँकि वे हिमाचल से बाहर के हैं, तो उन की सीमाएं भी साफ साफ दिख रहीं हैं और शक्तियाँ भी। सीमाएं इस अर्थ में कि इस ऐतिहासिक बहस का कुछ पक्ष इन से छूट गया लगता है। आठवें नवें दशक में भी हिमाचल की पत्र पत्रिकाओं में भाषा पर गम्भीर बहस हुई थी। मैं समझता हूँ कि दैनिक जनसत्ता तथा अनूप सेठी की पत्रिका हिमाचल मित्र में हुई बहस के कुछ अंश यहाँ ज़रूर जाने चाहिए थे। शक्तियाँ इस अर्थ में कि इस पूरे काम में भावुकता के स्थान पर तार्किकता से काम लिया गया है। एक वांछित तटस्थता भी निभाई गई है, जो काम एक गैर हिमाचली ही कर सकता था। स्थानीय लेखक ऐसे मामलों में पूर्वाग्रह, भावुकता, और राजनीतिक पक्षधरता से शायद ही बचा रह पाता। खैर, यह पक्षधरता भी एक स्तर पर ज़रूरी भी है। हम सब अपनी-अपनी मातृभाषा के अनूठेपन, सौदर्य और ताक़त को ले कर बेहद पज़ेसिव और भावुक होते हैं। आखिरकार भाषा आप की सामूहिक व सामुदायिक स्मृतियों, अस्मिता एवम सांस्कृतिक वजूद का सब से महत्वपूर्ण सम्वाहक होती है।
साथ ही साथ यह बता देना ज़रूरी है कि इस किताब में लिखी हर बात से सहमत नहीं हुआ जा सकता। निस्सन्देह यह एक ज़रूरी बहस है और इस किताब ने हिमाचल में भाषा के यक्ष प्रश्न को एक बार फिर से खड़ा करने का तथा इस पुरानी बहस को आगे बढ़ाने का सराहनीय दुस्साहस किया है। गगन दीप सिंह को ढेर सारी शुभ कामनाएं!
अजेय
16.01.2024
पटियाला, उत्तर क्षेत्र भाषा केन्द्र