इस उपन्यास में राम के वन गमन के पश्चात् भरत एवं शत्रुघ्न को अलौकिक भातृत्व प्रेम की प्रतिमूर्ति के रूप में ही प्रतिष्ठित किया गया है। भरत राम को चित्रकूट मनाने जाते हैं। राम मानते नहीं। अन्त में राम की चरण पादुकाएं राज्य सिंहासन पर रख कर उसकी पूजा करते हैं- एक तपस्वी का जीवन जीते है और शत्रुघ्न परिवार, प्रजा एवं भरत के मध्य कड़ी बन कर राज भी सम्भालते हैं और परिवार भी। रामायण के प्रमुख पात्रों को लेकर लिखा गया यह (राम-राज्य) उपन्यास लेखक के शाब्दिक सामर्थ्य का साक्षात् प्रमाण है। साथ ही ऐसे आध्यात्मिक कथानक में भी राष्ट्रभक्तलेखक भारत की भक्तिनहीं छोड़ते... भरत कहते हैं शत्रुघ्न ! भारत वर्ष में जन्म लेना ही कोटि जन्मों के कोटि पुण्यों का फल है। सार यह है कि प्रस्तुत उपन्यास भारतीय संस्कृति, आर्य परम्पराओं एवं राष्ट्र प्रेम का विषद आख्यान है।
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