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Subrat SaurabhAuthor of Kuch Woh PalPdt. Janardan Rai Nagar was born in Udaipur on Jun 16, 1911. He earned indestructible fame and name in the fields of education, literature, journalism, politics and social service. Trained in Gandhian values and having obtained the blessings of a great novelist and short story writer Munshi Premchand he established Hindi Vidyapeeth in 1937 to spread education in the erstwhile state of Mewar as an institute for educating the masses in the night when they were free from their daily chores. His hard work and dedication resulted in the continuous growth of this institution which is now flourishingRead More...
Pdt. Janardan Rai Nagar was born in Udaipur on Jun 16, 1911. He earned indestructible fame and name in the fields of education, literature, journalism, politics and social service. Trained in Gandhian values and having obtained the blessings of a great novelist and short story writer Munshi Premchand he established Hindi Vidyapeeth in 1937 to spread education in the erstwhile state of Mewar as an institute for educating the masses in the night when they were free from their daily chores. His hard work and dedication resulted in the continuous growth of this institution which is now flourishing as an institution deemed to be a University called Janardan Rain agar Rajasthan Vidyapeeth after his name.
While his committed public service earned him fame in the world of education his inner journey as an artist bloomed and blossomed into literary works of admirable literary worth. He composed novels, stories, prose-lyrics, and poetry. His novel Jagatguru Shankaracarya is a series of ten novels spread in some 5500 pages. Five novels in the series Ram Rajya have been published. Besides these, two collections of short stories, four collections of prose-lyrics, and plays titled “ Acharya Chanakya”, “ Patit Ka Swarg”, “ Uda Hatyara”, “ Jeevan Ka Satya”, have been very popular. His pays were staged also.
Pdt. Nagar’s contribution to journalism is no less versatile. He established, edited, and wrote for a number of magazines and newspapers. Some of these newspapers and magazines are Madhumati, Swarmangla, Nakhalistaan, Baalhit, Kalki, Samaj Shikshan, Shodh Patrika, Vasundhara, Jan Mangal, Jan Sandesh, and Aravali.
Pdt. Nagar was a great institution builder. Besides Rajasthan Vidyapeeth which is a Deemed to be University now, he played a pioneering role in institutions like Rajasthan Sahitya Academy, All India Adult Education Association, and Kendriya Sahitya Academy. He served as Chairman, Rajasthan Sahitya Academy, member Kendriya Sahitya Academy, Hindi Salaahkaar Samiti, Indian Railways, Central Adult Education Advisory Committee, etc. He represented the Mavli constituency in the state legislative Assembly for one term. The awards and accolades that he received in his lifetime are numerous. Prominent of these are Nehru Literacy Award and Maharana Mewar Foundation Award.
Pdt. Nagar completed his eventful life journey on August 15, 1997, exactly fifty years after the independence of India.
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पं. जनार्दन राय नागर द्वारा सृजित ‘राम-राज्य’ उपन्यास की श्रृंखला में ‘सीता-राम’ उपन्यास भारतीय संस्कृति के आदर्श नायक राम तथा उनकी पत्नी सीता के प्रमुख जीवन प्रसंगों का अद्भु
पं. जनार्दन राय नागर द्वारा सृजित ‘राम-राज्य’ उपन्यास की श्रृंखला में ‘सीता-राम’ उपन्यास भारतीय संस्कृति के आदर्श नायक राम तथा उनकी पत्नी सीता के प्रमुख जीवन प्रसंगों का अद्भुत वर्णन है। उनके द्वारा रचित ‘भरत’, ‘हनुमान’, ‘सुग्रीव’ एवं ‘राम-लक्ष्मण’ की भांति यह उपन्यास भी इतनी स्वाभाविकता लिए है कि समस्त पात्र सजीव एवं कथानक के अनुकूल रोचक हैं तथा गम्भीरता लिए हुए हैं।
सम्पूर्ण उपन्यास में सीता एवं राम अपनी भूमिका में अत्यधिक स्वाभाविकता लिए हुए अपने मन के अन्तर्द्वन्द्वों से जूझते दिखाई देते हैं। सीता वनवासी राम के प्रति इतनी स्वाभाविक हो जाती है कि राजा राम की भूमिका से विचलित होती रहती है। दूसरी ओर राजा-राम का मन सीता के प्रति मोम सा करूण किन्तु आर्य वंश की राज परम्परा के अनुकूल अत्यधिक कठोर हो जाता है। कुल मिला कर तात्कालिक परिस्थितियों को जीवन्त करता हुआ यह उपन्यास पाठकों के लिए अत्यधिक रूचिकर बन पड़ा है।
उपन्यास का शिल्प, भाषा व शब्द सौन्दर्य आकर्षक है।
पं. जनार्दन राय नागर द्वारा सृजित ‘राम-राज्य’ उपन्यास की श्रृंखला में ‘सीता-राम’ उपन्यास भारतीय संस्कृति के आदर्श नायक राम तथा उनकी पत्नी सीता के प्रमुख जीवन प्रसंगों का अद्भु
पं. जनार्दन राय नागर द्वारा सृजित ‘राम-राज्य’ उपन्यास की श्रृंखला में ‘सीता-राम’ उपन्यास भारतीय संस्कृति के आदर्श नायक राम तथा उनकी पत्नी सीता के प्रमुख जीवन प्रसंगों का अद्भुत वर्णन है। उनके द्वारा रचित ‘भरत’, ‘हनुमान’, ‘सुग्रीव’ एवं ‘राम-लक्ष्मण’ की भांति यह उपन्यास भी इतनी स्वाभाविकता लिए है कि समस्त पात्र सजीव एवं कथानक के अनुकूल रोचक हैं तथा गम्भीरता लिए हुए हैं।
सम्पूर्ण उपन्यास में सीता एवं राम अपनी भूमिका में अत्यधिक स्वाभाविकता लिए हुए अपने मन के अन्तर्द्वन्द्वों से जूझते दिखाई देते हैं। सीता वनवासी राम के प्रति इतनी स्वाभाविक हो जाती है कि राजा राम की भूमिका से विचलित होती रहती है। दूसरी ओर राजा-राम का मन सीता के प्रति मोम सा करूण किन्तु आर्य वंश की राज परम्परा के अनुकूल अत्यधिक कठोर हो जाता है। कुल मिला कर तात्कालिक परिस्थितियों को जीवन्त करता हुआ यह उपन्यास पाठकों के लिए अत्यधिक रूचिकर बन पड़ा है।
उपन्यास का शिल्प, भाषा व शब्द सौन्दर्य आकर्षक है।
इस उपन्यास में राम के वन गमन के पश्चात् भरत एवं शत्रुघ्न को अलौकिक भातृत्व प्रेम की प्रतिमूर्ति के रूप में ही प्रतिष्ठित किया गया है। भरत राम को चित्रकूट मनाने जाते हैं। राम मान
इस उपन्यास में राम के वन गमन के पश्चात् भरत एवं शत्रुघ्न को अलौकिक भातृत्व प्रेम की प्रतिमूर्ति के रूप में ही प्रतिष्ठित किया गया है। भरत राम को चित्रकूट मनाने जाते हैं। राम मानते नहीं। अन्त में राम की चरण पादुकाएं राज्य सिंहासन पर रख कर उसकी पूजा करते हैं- एक तपस्वी का जीवन जीते है और शत्रुघ्न परिवार, प्रजा एवं भरत के मध्य कड़ी बन कर राज भी सम्भालते हैं और परिवार भी। रामायण के प्रमुख पात्रों को लेकर लिखा गया यह (राम-राज्य) उपन्यास लेखक के शाब्दिक सामर्थ्य का साक्षात् प्रमाण है। साथ ही ऐसे आध्यात्मिक कथानक में भी राष्ट्रभक्तलेखक भारत की भक्तिनहीं छोड़ते... भरत कहते हैं शत्रुघ्न ! भारत वर्ष में जन्म लेना ही कोटि जन्मों के कोटि पुण्यों का फल है। सार यह है कि प्रस्तुत उपन्यास भारतीय संस्कृति, आर्य परम्पराओं एवं राष्ट्र प्रेम का विषद आख्यान है।
इस उपन्यास में सुग्रीव एक धीर-गम्भीर चिन्तक के रूप में दर्शाये गये हैं। वानर संस्कृति का प्रतीक ‘‘सुग्रीव उपन्यास’’ के प्रारम्भ में असहाय, भयभीत, ईर्षालु एवं राज्यलिप्सा से भर
इस उपन्यास में सुग्रीव एक धीर-गम्भीर चिन्तक के रूप में दर्शाये गये हैं। वानर संस्कृति का प्रतीक ‘‘सुग्रीव उपन्यास’’ के प्रारम्भ में असहाय, भयभीत, ईर्षालु एवं राज्यलिप्सा से भरा व्यक्तित्व बाद में जाकर धीर, गम्भीर एवं विवेकशील व्यक्तित्व बन जाता है। वह समस्त उपन्यास में देव संस्कृति का समर्थक रहा है। इसी कारण बालि और रावण की मैत्री उसकी एक मात्र चिन्ता रही है। उसे भय है कि रावण सम्पूर्ण भू खण्ड को अपने अधिकार में ले लेगा एवं वानर राज्य ही समाप्त कर देगा। इसलिए उसका एक उद्देश्य है- वानर राज्य की सुरक्षा तथा निरन्तर उत्कर्ष वानर अपनी भोगवादी संस्कृति त्याग कर सत्य के प्रकाश की ओर बढ़ सके।
‘हनुमान’ उपन्यास की भाँति ही लेखक ने राक्षस, मानव एवं वानर संस्कृति का विशद् विवेचन करने के साथ सुग्रीव के सम्पूर्ण चरित्र का विशद चित्रण किया है।
पण्डित जनार्दन राय नागर द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित महा उपन्यास की अन्तिम कड़ी है- ‘‘महाप्रयाण’’। यह दसवां उपन्यास जगद्गुरु की सम्पूर्ण जीवन यात्रा एवं उससे भारत के सा
पण्डित जनार्दन राय नागर द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित महा उपन्यास की अन्तिम कड़ी है- ‘‘महाप्रयाण’’। यह दसवां उपन्यास जगद्गुरु की सम्पूर्ण जीवन यात्रा एवं उससे भारत के सांस्कृतिक जीवन पर होने वाले प्रभावों का दिग्दर्शन करवाता है। उन्होंने धर्म के नाम पर चलने वाले आडम्बरों के विरूद्ध वातावरण का निर्माण कर मानवता के शाश्वत मूल्यों की स्थापना का सशक्त प्रयास किया। परिणाम स्वरूप धर्म के आभ्यन्तर में पलने वाली विसंगतियों को दूर करने की ओर समाज प्रवृत्त हुआ।
इस वृहत् उपन्यास के इस अन्तिम भाग में उपन्यास की चरमतम परिणति है- जगद्गुरु की शिष्य मण्डली की विशुद्ध, पवित्र अश्रुप्रवाह की अनकही वाणी में। इसमें रोमांच है, पीड़ा है, वेदना है। इसमें विदेह हुए देही को भी पल भर के लिए देह भान कराने वाली अमर कहानी है। स्पष्ट हो जाता है कि वेदान्त क्या है?- ज्ञान की व्याख्या है, विचार एवं संशयों का शमन है, प्रश्नहीन अनुभूति है किन्तु वेदान्त अभिमन्त्रण नहीं है। हां, यह स्पष्ट है कि भव सहन करते हुए ब्रह्म को आत्मसात करना ही धर्म है।
यह उपन्यास शंकर के जीवन की अन्तिम यात्रा है, अन्तिम सोपान है। शास्त्रार्थ थम गये हैं, वाक्युद्ध मौन हो चुके हैं। वेदान्त दर्शन का पुनर्बलन है। शंकर का चरित्र भारतीयता का द्योतक है। कुल मिला कर मानवता की दिव्यता की झांकी प्रस्तुत की है। यह सत्य है कि आज के दौड़ते हुए समाज के पास चिन्तन का समय नहीं है, आध्यात्म गन्तव्य ही नहीं रहा। किन्तु समय आयेगा जब आध्यात्म पुनः प्रतिष्ठित होगा।
संक्षेप में, यह उपन्यास मनुष्य में कूटस्थ परमात्म तत्व का प्रस्फुटन है- कोई एषणा नहीं, कोई स्वार्थ नहीं। शंकर का सजल, सरल, सरस आर्द्र हृदय केवल एक ही शिव संकल्प से पूरित है- ‘‘अर्पित हो मेरा मनुज कार्य बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय।’’
पण्डित जनार्दन राय द्वारा रचित वृहत् उपन्यास ‘‘जगद्गुरू शंकराचार्य’’ के 10 भागों में से अन्तिम चरण की ओर अग्रसित ‘‘ज्योतिर्मठ’’ अत्यधिक महत्वपूर्ण कड़ी है। इस पुस्तक में पांचर
पण्डित जनार्दन राय द्वारा रचित वृहत् उपन्यास ‘‘जगद्गुरू शंकराचार्य’’ के 10 भागों में से अन्तिम चरण की ओर अग्रसित ‘‘ज्योतिर्मठ’’ अत्यधिक महत्वपूर्ण कड़ी है। इस पुस्तक में पांचरात्र सम्प्रदाय द्वारा विरोध कर बद्रीनाथ के समीप ज्योतिर्मठ की स्थापना कथावस्तु का प्रमुख सूत्र है। वल्लभी और वाह्लीक में जैन आचार्यों तथा उज्जयनी में भट्ट भास्कर के साथ शास्त्रार्थ जहां दार्शनिक तर्क पद्धति का सजीव चित्रण है, वहीं भट्ट भास्कर और उनकी पत्नी, राजेश्वर सुधन्वा और रानी अर्पणा के संवाद उपन्यास को सरसता प्रदान करते हैं। इसी एक उपन्यास के पढ़ने मात्र से भारत की सभी प्रमुख विचार धाराओं का ज्ञान पाठक को हो जाता है। इस उपन्यास के साथ अद्वैत की अविरल, अनवरत, अथक यात्रा के अन्तिम चरण की समाप्ति हुई। लेखक का दर्शन धारा प्रवाह अपने लक्ष्य कर पहुंच कर हिमालय में प्रतिध्वनित हो गया और शंकर कह उठे- .... यह मठ अथर्ववेद का स्थान होगा। देवाधिदेव इस मठ के देव होंगे- थे; हैं; यह ज्योतिर्मय भारत है। इस ज्योति मठ का आधारभूत वाक्य होगा- ‘अयमात्मा ब्रह्म’। यह मैं, आत्मा, ब्रह्म हूं- न मैं मुक्ति; न मैं शास्त्र, न मैं गुरू; चिदैव देहस्तु, चिदेव लोकानि भूतानि, चिदिन्द्रियाणी, कर्ता चिदन्तः करणम् चिदेव, चिदेव सत्यम् परमात्म रूपम्।
जगद्गुरू की शब्द ध्वनियां सब के मन में गूंजती हैं- ‘‘अयमात्मा ब्रह्म’’
जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित उपन्यासों की श्रृंखला में ‘द्वारका मठ’ जनार्दनराय नागर द्वारा सृजित अत्यधिक चर्चित उपन्यास है।
इस उपन्यास में रामेश्वर की ओर प्रयाण करते समय
जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित उपन्यासों की श्रृंखला में ‘द्वारका मठ’ जनार्दनराय नागर द्वारा सृजित अत्यधिक चर्चित उपन्यास है।
इस उपन्यास में रामेश्वर की ओर प्रयाण करते समय महाबलेश्वर में जगद्गुरु शंकर को विभिन्न सम्प्रदायों के अधिकृत विद्वानों से शास्त्रार्थ करना पड़ा। शास्त्रार्थ के समय भरी सभा में एक स्त्री द्वारा बालक के शव को जीवित करने की प्रार्थना की गई। इस पर पण्डितों ने यह संकल्प व्यक्त किया कि शंकराचार्य को ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ की स्वयं की घोषणा को सार्थक सिद्ध करना चाहिए। नीलकण्ठ के साथ हुए शास्त्रार्थ में शंकराचार्य का उद्घोष था ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या’ और नीलकण्ठ की घोषणा थी ‘जीव सत्यं ब्रह्म मिथ्या’। शास्त्रार्थ में जगद्गुरु के सच्चिदानन्द ब्रह्म और शिवोऽहम के मन्त्र की विजय हुई। द्वारका पहुंच कर उन्होंने गुर्जरेश्वर की साक्षी में ‘द्वारका मठ’ की स्थापना की।
पण्डित जनार्दन राय नागर द्वारा रचित ‘गोवर्धन मठ’ उपन्यास उनके द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित दस उपन्यासों में से एक है। इस उपन्यास में समसामयिक राजनीति, सामाजिक अन्तर्
पण्डित जनार्दन राय नागर द्वारा रचित ‘गोवर्धन मठ’ उपन्यास उनके द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित दस उपन्यासों में से एक है। इस उपन्यास में समसामयिक राजनीति, सामाजिक अन्तर्विरोध, साम्प्रदायिक विडम्बना एवं कट्टर मत मतान्तर के पारस्परिक वैर का तादृश्य चित्रण है। सभी मतवादी पण्डित और विद्वान अपने मत की विजय तथा अन्य मतों की पराजय चाहते हैं। चारों ओर यज्ञों में हिंसा, आचार की विवेक शून्यता, विषम रूढ़ियां, जातिगत क्रूर अनुशासन, हीन भावना आदि से समाज सड़ रहा था। प्रजा दिशाहीन थी। इस पृष्ठभूमि के सजीव चित्रण के साथ ज्ञान और भक्ति का अनुपम अपूर्व संगम का सृजन उपन्यासकार ने किया है। जगद्गुरू शंकर की महाभाव की स्थिति, पद्मपाद की भक्ति के आवेश में चित्ताकाश में गूंजती स्तवन ध्वनि का आलेखन इस उपन्यास की अनूठी विशेषता है।
अन्त में स्पष्ट कर दिया है कि यह माया, जगत, दर्पण खण्ड-खण्ड है और ब्रह्म की धारणाओं के प्रतिबिंबों से भरा है। बिंब एक है, अखण्ड है, अभय है। विष्वास सत्य का ही है। देह की तो छाया तथा जगत् की माया है। शास्त्र आत्मा का विचार करता है, वेदान्त आत्मा को प्रत्यक्ष करवाता है। गृहस्थों के लिए अनासक्त कर्म तथा जगन्नाथ की शरणागति ही चाहिए। सर्वज्ञ सभी में ब्रह्म है, प्रज्ञान है। अतः महावाक्य हुआ- ‘‘प्रज्ञानम् ब्रह्म’’
पण्डित जनार्दन राय नागर द्वारा रचित ‘श्रृंगेरीमठ’ उपन्यास उनके द्वारा जगद्गुरू शंकराचार्य पर सृजित दस उपन्यासों में से एक है। इसमें शंकराचार्य की दिग्विजय का वर्णन है। शंकर
पण्डित जनार्दन राय नागर द्वारा रचित ‘श्रृंगेरीमठ’ उपन्यास उनके द्वारा जगद्गुरू शंकराचार्य पर सृजित दस उपन्यासों में से एक है। इसमें शंकराचार्य की दिग्विजय का वर्णन है। शंकराचार्य एवं क्रचक्र के मध्य हुए शास्त्रार्थ में क्रचक्र पराजित होता है। वह उग्र भैरव को शंकराचार्य के वध के लिए भेजता है। पद्यपाद को न जाने क्यों यह पूर्वाभास था कि क्रचक्र एवं उग्र भैरव मिलकर कुछ तो कुकृत्य करने ही वाले हैं। इसलिए वह बहुत चौकन्ना रहता है तथा आचार्य शंकर पर अपनी दृष्टि बनाए रखता है। जैसे ही उग्र भैरव ने शंकर को मारने का प्रयास किया। पद्यपाद उग्र भैरव को मारकर शंकराचार्य की रक्षा करता है। तत्पश्चात् शंकराचार्य श्रृंगेरी जाते हैं तथा मठ की स्थापना करते हैं। मार्ग में विभिन्न बौद्ध, कापालिक, नाथ, सुरी, वैष्णव आदि मध्य सम्प्रदायों के मध्य हुए शास्त्रार्थ ज्ञान का अजस्र स्रोत हैं। पाठकों के लिए अत्यधिक ज्ञानवर्धक एवं रूचिकर हैं।
मनीषी पण्डित श्री जनार्दन राय नागर द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित दस उपन्यासों में से ‘‘शंकर-शास्त्रार्थ’’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्
मनीषी पण्डित श्री जनार्दन राय नागर द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित दस उपन्यासों में से ‘‘शंकर-शास्त्रार्थ’’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र पर विजय श्री वरण करने के कारण ही शंकराचार्य को जगद्गुरु के रूप में ख्याति मिली थी। शंकराचार्य का उद्घोष था- ‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’’ और मण्डन मिश्र का- ‘‘जगत् सत्यं ब्रह्म मिथ्या’’। शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र को हराने पर सन्यास ग्रहण करना था जबकि शंकराचार्य को हारने पर गृहस्थाश्रम स्वीकार करना था।
कई दिनों तक शास्त्रार्थ चला। जब शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र हारने लगे तब उभय भारती ने शंकराचार्य से आग्रह किया कि अर्द्धांगिनी होने के नाते शंकराचार्य उन्हें भी हरायेंगे तब ही मण्डन मिश्र की पराजय सिद्ध होगी। भारती व शंकराचार्य के मध्य शास्त्रार्थ में भारती द्वारा नर-नारी के सम्पूर्ण पल्लवलित-पुष्पित अनुभूत ज्ञान के सम्बन्ध में प्रश्न किया गया। इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए शंकराचार्य ने परकाया प्रवेश के माध्यम से राजा अमरूक के मृत शरीर में प्रवेश कर नर-नारी के सम्पूर्ण पल्लवलित-पुष्पित अनुभव प्राप्त किये। तथा पुनः शास्त्रार्थ हेतु लौटे। अन्त में भारती ने मण्डन मिश्र की हार स्वीकार की। मण्डन मिश्र ने सन्यास ग्रहण किया तथा भारती ने देह त्याग दिया। इस प्रकार ‘‘शंकर-शास्त्रार्थ’’ का उत्तरार्द्ध भाग अत्यधिक रोचक एवं महत्वपूर्ण है।
मनीषी पण्डित श्री जनार्दन राय द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित दस उपन्यासों में से ‘‘शंकर-शास्त्रार्थ’’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र पर व
मनीषी पण्डित श्री जनार्दन राय द्वारा जगद्गुरु शंकराचार्य पर सृजित दस उपन्यासों में से ‘‘शंकर-शास्त्रार्थ’’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र पर विजय श्रीवरण करने के कारण ही शंकराचार्य को जगद्गुरु के रूप में ख्याति मिली थी। शंकराचार्य का उद्घोष था- ‘‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’’ और मण्डन मिश्र का ‘‘जगत्सत्यं ब्रह्म मिथ्या’’। शास्त्रार्थ में मण्डन मिश्र को हारने पर सन्यास ग्रहण करना था जबकि शंकराचार्य को हारने पर गृहस्थाश्रम स्वीकार करना था। कई दिनों तक शास्त्रार्थ चलता रहा। मण्डन मिश्र की पत्नी उभय भारती शास्त्रार्थ की अध्यक्षता कर रही थी। इसी कथा को इस उपन्यास के ‘‘पूर्वार्द्ध’’ में स्पष्ट किया है।
शंकर-शास्त्रार्थ के ‘‘उत्तरार्द्ध’’ में जब मण्डन मिश्र की अर्धांगिनी होने के नाते शंकराचार्य से आग्रह करती है कि मुझे हराये बिना मण्डन मिश्र की पराजय सिद्ध नहीं हो सकती। भारती व शंकराचार्य के मध्य हुए शास्त्रार्थ की अध्यक्षता राजराजेश्वर सुधन्वा ने स्वीकार की। भारती द्वारा नर-नारी सम्बन्ध पर प्रश्न करने पर शंकराचार्य ने परकाया प्रवेश द्वारा ज्ञान प्राप्त कर शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की। मण्डन मिश्र ने सन्यास ग्रहण किया। ‘‘शंकर-शास्त्रार्थ’’ के पूर्वार्द्ध में शास्त्रार्थ का सम्पूर्ण विकास क्रम अत्यधिक प्रभावकारी एवं रोचक है।
मनीषी पं. जनार्दनराय नागर द्वारा रचित जगद्गुरु शंकराचार्य उपन्यास श्रृंखला में यह 'शंकर-सन्देश' है। महर्षि बादरायण के सन्देशानुसार शंकर ने सच्चिदानन्द स्वरूप में सन्देश दिया
मनीषी पं. जनार्दनराय नागर द्वारा रचित जगद्गुरु शंकराचार्य उपन्यास श्रृंखला में यह 'शंकर-सन्देश' है। महर्षि बादरायण के सन्देशानुसार शंकर ने सच्चिदानन्द स्वरूप में सन्देश दिया - सच्चिदानन्द ही आत्मा है, परमात्मा है, ज्ञान ही सत् है, चित्त है, आनन्द है, आत्मज्ञान है। जीवात्मा का सत हैं, चित है, आनन्द है, आत्मज्ञान है। जीवात्मा का सत स्वभाव ज्ञान रूप है, ज्ञानमय है, ज्ञान पूर्ण परिपूर्ण है।
आत्मा बहुस्याम जीवन के अनुभव और अपने विभूतिमय सत्य के लिए अज्ञानमय होकर जगत् की रंगभूमि रचता तथा भव-संसार के नाट्य किया करता है किन्तु यह लीला आत्मा की प्रकृति नहीं है, यह आत्मा की अभिलाषा भर है। स्वप्नमयी स्वप्नवत् स्मृति दग्ध आत्मा का स्वभाव सच्चिदानन्द है और यही ज्ञान है, ब्रह्म है- शाश्वत सत्य है। ब्रह्म ही सत्य है। शून्यातीत होना योग का अभीष्ट है, कालातीत होना जीवन का अभीष्ट है और ब्रह्म स्थित होना आत्मा का अभीष्ट है। संज्ञान से उपरत कालातीत होकर जीवन शून्य से परे हो जाता है और अपने वास्तविक स्वरूप ब्रह्म का साक्षात करता है।
जगद्गुरू शंकराचार्य- शंकर के जीवन वृत को आधार बनाकर पण्डित जनार्दन राय नागर द्वारा लिखे गये दस उपन्यासों में यह ‘‘शंकर साक्षात्’’ है। इस उपन्यास का कथानक आत्म जन्य है। जिसमें ज
जगद्गुरू शंकराचार्य- शंकर के जीवन वृत को आधार बनाकर पण्डित जनार्दन राय नागर द्वारा लिखे गये दस उपन्यासों में यह ‘‘शंकर साक्षात्’’ है। इस उपन्यास का कथानक आत्म जन्य है। जिसमें ज्ञान से ज्ञान की, सिद्धियों से सिद्धियों की टकराहट है। सम्पूर्ण चित्र में ‘‘मैं’’ की खोज है। परम् शिवत्व के प्रथम दर्शन शंकर को कंदरा में होते हैं। शंकर गुरू गोविन्दपाद के साथ ऊपर उठता है। शंकर को विश्वनाथ के दर्शन करवाये। शंकर पूर्णत्व के अन्तिम सोपान पर सदा के लिए स्थित हो गये। विश्वोत्तीर्ण के साथ विश्वात्मा हो गये। पराशक्ति से तादात्म्य लाभ प्राप्त कर वे पहुंच गये, जहां पहुंचना था- ‘‘शंकर से शंकर साक्षात् हो गये’’
इस उपन्यास में ज्ञान व भक्ति का समन्वय है। इसमें लेखक-ज्ञानी भक्त नहीं होता- इस भ्रान्त धारणा का खण्डन करते हैं। शंकर का ज्ञान, क्रचक्र का अज्ञान, कुमारिल्ल का शिव संकल्प, मण्डन का अभिमान उपन्यास को विचार मंथन से आलोकित करता है। इस प्रकार यह उपन्यास अनिर्वचनीय, अकथनीय, निरामय, निर्वाणमय, अपार, आरपार, केवल एकमेव एकाकार, रूपहीन, नामहीन ‘‘ब्रह्म’’ साक्षात्कार की पथगाथा है।
‘‘जगद्गुरू शंकराचार्य’’- शंकर के जीवन वृत्त को आधार बनाकर पण्डित जनार्दन राय नागर द्वारा लिखे गये दस उपन्यासों में से यह ‘‘शंकर-दीक्षा’’ है। दीक्षा लेने के लिए गुरू गोविन्द के
‘‘जगद्गुरू शंकराचार्य’’- शंकर के जीवन वृत्त को आधार बनाकर पण्डित जनार्दन राय नागर द्वारा लिखे गये दस उपन्यासों में से यह ‘‘शंकर-दीक्षा’’ है। दीक्षा लेने के लिए गुरू गोविन्द के पास नर्मदा नदी की ओर शंकर ने प्रयाण किया। गांव-गांव भ्रमण करते हुए शंकर अविराम चलते रहे। अन्ततः शंकर अपनी यात्रा की अवधि में जन मानस को उद्वेलित करते हुए गुरू गोविन्द के आश्रम में जा पहुंचे। वहां कठोर तप किया तथा गुरू के वरद् हस्त के प्रभाव में सिद्धियां अर्जित कीं। गुरू ने शंकर को चार महा वाक्यों द्वारा ब्रह्म तत्व का उपदेश दिया-
‘‘तत्वमसि’’, ‘‘प्रज्ञानं ब्रह्म’’, ‘‘अयमात्मा ब्रह्म’’ एवं ‘‘अहं ब्रह्मास्मि।’’ शंकर आध्यात्मिक शक्तियों से पूर्ण होने के बाद भी गुरू चरणों में रहना चाहते थे किन्तु गुरू गोविन्दपाद ने संतुष्ट होकर शंकर को काशी जाने की प्रेरणा दी। कथानक के तारतम्य में मण्डन मिश्र और भारती के भावात्मक सम्बन्धों का रोचक प्रसंग है, साथ ही बौद्ध धर्म की दीक्षा ग्रहण करने वाले कुमारिल्ल भट्ट द्वारा बौद्ध धर्म के आचार्यों के शास्त्रार्थ के लिए ललकारने का अपना एक विशिष्ट आकर्षण है।
‘‘जगद्गुरू शंकराचार्य’’ शंकर के जीवन वृत्त को आधार बनाकर लिखा गया पण्डित जनार्दन राय नागर के इस उपन्यास का नाम ‘‘शंकर-सन्यास’’ है। बाल्यावस्था से ही अपने चमत्कारों के कारण शं
‘‘जगद्गुरू शंकराचार्य’’ शंकर के जीवन वृत्त को आधार बनाकर लिखा गया पण्डित जनार्दन राय नागर के इस उपन्यास का नाम ‘‘शंकर-सन्यास’’ है। बाल्यावस्था से ही अपने चमत्कारों के कारण शंकर जन चर्चाओं का केन्द्र बिन्दु बना। अलवई नदी में स्नान करते समय शंकर का पांव मकर की दाढ़ों में जा फंसा और आसन्न मृत्यु के साक्षात्कार से शंकर की विकलता ने मां विशिष्टा के मन को विचलित कर दिया। ‘‘त्रिवांकुर मण्डल के स्वामी राजशेखर के अनुरोध से शंकर को सन्यास की अनुमति न देने के लिए विशिष्टा का अटल निश्चय डगमगाया। परिस्थिति की गम्भीरता के आवेश में विशिष्टा ने अपने पुत्र शंकर को सन्यास के लिए अन्ततः स्वीकृति दे ही दी।’’
‘चिदानन्द रूपम् शिवोऽहम् शिवोऽहम्’ का मन्त्र जाप करते हुए सन्यासी रूप में शंकर गुरू गोविन्दपाद से दीक्षा प्राप्त करने के लिए नर्मदा नदी पर स्थित उनके आश्रम की ओर चल पड़े। इसके आगे का वृत्तान्त ‘शंकर-दीक्षा’ नामक उपन्यास में दिया गया है।
इस उपन्यास में ‘हनुमान’ एक अलौकिक पात्र के रूप में दशार्य गये हैं। ‘‘यह क्या पार्थिव शिशु हैं? नहीं, केसरी!... यह आञ्जनेय, केसरीनन्दन, निस्संदेह सभी देवताओं और शक्तियों के पुंज सा
इस उपन्यास में ‘हनुमान’ एक अलौकिक पात्र के रूप में दशार्य गये हैं। ‘‘यह क्या पार्थिव शिशु हैं? नहीं, केसरी!... यह आञ्जनेय, केसरीनन्दन, निस्संदेह सभी देवताओं और शक्तियों के पुंज सा ही अवतरित हुआ है- यह जन्मा नहीं है, केसरी ! आविर्भूत हुआ है।’’ हनुमान स्वयं कहते हैं- ‘‘मैं कहता हूं, राम की राह धरती देख रही है- आकाश देख रहा है। मुझे राम ने कहा- क्षीर सागर में कहा; तू जा, पृथ्वी पर जन्म ले-वानर योनि में और मेरी प्रतीक्षा कर...।’’ हनुमान के हिसाब से राक्षसों के सामर्थ्य ने यह अनिवार्य कर दिया था कि वानर या तो विज्ञान की शक्ति प्राप्त करें और राक्षस बन जायें अथवा आर्यों की तप शक्ति प्राप्त कर अमृत पुत्र बन जायें। इसी प्रकार का आध्यात्मिक चिन्तन एवं रामभक्ति की पराकाष्टा यत्र-तत्र, सम्पूर्ण उपन्यास में दृष्टव्य है- ‘‘मैं जन्मना-मरना नहीं चाहता। मैं मृत्यु को नहीं चाहता। रोग और शोक से भरे संसार को मैं नहीं चाहता, प्रभो!’’ - शिव मुलके- ‘‘किसे चाहता है तब?’’- श्री राम को, शिव शम्भो! श्री राम को।’’- हनुमान ने कहा।
सार यह है कि इस उपन्यास में रामायणकालीन राक्षस, वानर एवं मानव संस्कृतियों की क्रिया, प्रतिक्रिया एवं अन्त:क्रियाओं का विशद् विवेचन सृजित करने के साथ हनुमान के सम्पूर्ण चरित्र का विशद आख्यान है।
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