ये दुनिया की तमाम धूल-धांप के बीच अपने जीवन के दिनों के साथ बोलती-बतियाती-सुस्ताती हुई कविताएं हैं। जब मरण भी वहीं और ठीक-ठीक सारा जीवन भी, अभाव, प्रेम, बिछोह, सुख, दुख और एक अचानक के बीच आया हुआ सब अपनी जगह पर है, ये कविताएं भाषा में उन्हीं को थोड़ा ठौर देती हैं। अपने आस-पास को आकार देतीं, उनमें संभावनाओं के नए उगे फूलों को अपने हाथों से सहलातीं और बिना किसी व्यर्थ शोर के पैदल अपनी यायावरी में चलती जाती हैं।
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