मंदार बेला गांव भी इससे अछूता न रह सका था। कहीं धुआं तो कहीं रोने बिलखने की आवाजें आ रही थी। गांव की सड़कें भी शहर की सूनी गलियों की तरह खौफ का चुपचाप सामना कर रही थी।
कहीं अर्थियाँ उठ रही थी तो कहीं अंतिम विदाई के गीत गाए जा रहे थे। आसपास के पेड़ों से भी मानो दुखी हवा रुक-रुक कर चल रही थी।