असलम ने अपना बड़ा चाक़ू निकाला और एक-एक करके मुर्गियों के साथ एक बकरा को भी बोटियों में तौलने लगा। लोग आते गए, मुर्गियां कटते रहे। बकरा बंटता रहा। आखिर दोपहर का 1:30 बज गया, तब जाकर असलम को थोड़ा आराम नसीब हुआ था। चाकू एक तरफ पलट कर लंबी-लंबी सांसे लेने लगा था,मानो बोटियाँ काटते-काटते वह भी थक गया था। असलम के ऊपर पड़ा खून का छींटा ठंडा होकर लाल से अब काले रंग का रूप अख्तियार कर लिया था। सामने ही पड़ी टूटी और एक तरफ लचक जाने वाली कुर्सी पर असलम भी सुस्ताने लगा था।