साधु, सन्यासी, संत, महात्मा या ऋषि मुनियों के जीवन को समझने में तो सहायता मिलती ही है बल्कि पाठक को अपने जीवन के लिए भी प्रेरणा एवं उचित मार्गदर्शन की प्राप्ति होती है। जिससे पुस्तक में समय समय पर ज्ञान तथा अनुभव से अपने मतानुसार किसी भी विचारधारा का विश्लेषण, परिवर्तन तथा किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का प्रयास एवं परिणाम अत्यंत रोचक है। पुस्तक में किसी मत विशेष पर प्रहार करना लेखक का उद्देश्य कदापि भी नहीं रहा है। जो सही नहीं है, वो कभी भी सही हो ही नहीं सकता। इसीलिए जो सही है सदैव उसी पर ही उचित मनन एवं विश्वास भी किया जाना चाहिए। उसी के अनुरूप ही अपना मत बनाइए तथा उसी को ही अपने जीवन में उतारने का प्रयास भी करें। फिर उसी प्रकार से समय अनुसार मनुष्य को अपने आप को परिवर्तित भी करना चाहिए। यह मनुष्य के जीवन का मूल उद्देश्य है तथा इसी से उसका जीवन भी वास्तव में सार्थक हो सकता है। यह ही इस पुस्तक का सार भी है एवं यह ही इस पुस्तक को लिखने का लेखक का मूल उद्देश्य भी।