मीमांसा कोई नाम नहीं है ! यह एक सोच की पीड़ा है | जिसे बहुत ही गहन-चिंतन और मनन के बाद लिखा गया है | जिसको मीमांसा से संबोधित किया गया है |
मीमांसा में नारी के हर रूप को दिखाया गया है | इसमें नारी के साथ होने वाली उन सभी घटनाओं को प्रदर्शित करने का कोशिश किया गया है, जिसे किसी भी रूप में, कभी भी सही नहीं माना जा सकता | इस पुस्तक को उन सभी नारी को समर्पित किया गया है, जो समाज की घृणा, तृष्णा से निकल करके, अपने अस्तित्व को कायम रखने की पुर-जोर कोशिश कर रही है | हर उस नारी को शब्दों से सम्मान देने की कोशशि है, जो अपने स्वभिमान के साथ-साथ, इस धरातल को भी उसकी पहचान बनाये रखने में मदद कर रही है |
कविताओं की एक ऐसी श्रृंखला ! जिसमें समाज के दायित्व को अपने शब्दों में बांध कर, एक काली परछाई को दिखने की कोशिश है | इसमें नारी की संवेदना, वेदना और उसके जीवन में क्रियान्वित, हर उस भावना को दिखाने का प्रयत्न किया गया है, जिसमें उसका जीवन एक कीड़ा की भांति देखा जाता है | इसमें समाज की कुव्यवस्था और नारी के संघर्स को, पन्नों पर, शब्दों में दिखने का प्रयत्न मात्र है |
नारी एक निर्माण है ! जो धरातल में धंसी हुई नीब के समान है, जिसके उपर पूरा का पूरा निर्माण बुलंदी के साथ, अडिग रूप में खड़ा है |
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