‘पल भर की छाँव’ की विषय वस्तु ऐसी है कि एक बार जब आप इसे पढ़ना शुरू करते हैं तो फिर इसे समाप्त किये बिना रह ही नहीं सकते। यह एक उपन्यास ही नहीं एक ऐसा संस्मरणात्मक वृत्तांत भी है जो कि काल्पनिक होते हुए भी सत्य है। सत्य होते हुए भी काल्पनिक ! सब कुछ देखा, सुना, पढ़ा तथा अनुभव किया हुआ जैसा है। जिस पर प्राचीन काल से ही विश्वास किया जाता आ रहा है। ऐसी ही धारणा अन्य धर्मग्रंथों तथा जन साधारण की भी रही है तथा यह सब वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी तर्कसंगत प्रमाणित हो रहा है। इसी अवधारणा को परिलक्षित करते हुए इस उपन्यास की रचना की गई है।
इसके रचनात्मक लेखन से पाठक को एक प्रकार के रचनात्मक भ्रम जाल में उलझा कर एक विश्वसनीय सत्य से अवगत करवाना है। इस की रचना का उद्देश्य केवल व्यक्तिगत मनोरंजन के साथ परालौकिक विचारधारा से संबंधित विश्वसनीय तथ्यों से परिचय करवाना ही है।
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