आप ही से अपने लिए, अपने कर, कुछ लिखना उचित तो नहीं किन्तु आवश्यक सा लगता है। 'परिवा' अपरिपक्व ज्ञान एवं लड़खड़ाती हुई लेखनी की देन है। स्वर बन कण्ठ से फूटे, कलम से कागज पर उतरे शब्दों को सर्व श्री लक्ष्मीशंकर त्रिवेदी, श्री 'अनुपम' जी एवं श्रद्धेय श्री 'चतुरी चाचा' ने संवारा अतः इन त्रय कवियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करता हूँ।
पूज्यवर आचार्य परशुराम उपाध्याय, एम.ए. (हिन्दी, मनोविज्ञान), एल.टी. का चिर आभारी हूँ जिनके प्रयास एवं परिश्रम से पुस्तक प्रकाशन में आई। इसे पढ़कर जिन साहित्य मर्मज्ञ एवं विद्वान महानुभावों ने आशीर्वाद देकर, मंगल कामनाओं द्वारा प्रोत्साहित किया है, उनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकाश करता हूँ और आशा करता हूँ कि वे भविष्य में भी समुचित मार्ग प्रदर्शन करते रहेंगे।
काव्य-साधना की प्रथम पुस्तक 'परिवा' में त्रुटियों का होना स्वाभाविक है। आशा ही नहीं, विपुल विश्वास है, सहृदय पाठक इस पर ध्यान न देंगे। यदि कविताओं की उलझी किन्तु सरल पंक्तियों से पाठकों के हृदय में थोड़ी भी सरसता आई तो अपना प्रयास सफल समझूंगा।
- कवि
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