बचपन से अपने घर में, संबंधियों और मित्रों के यहाँ श्री सत्यनारायण के पूजन और कथा में सम्मिलित होता आया हूँ। अपने समाज में त्योहारों और सामाजिक उत्सवों के साथ सबसे अधिक प्रचलित पूजन मैंने यही देखा। इस कथा ने मुझे सदैव ही मुग्ध किया, मन को एक अनोखी शांति प्रदान की। सोचने और विवेचन करने के लिए बहुत से प्रसंग और विषय दिए। यह कैसे संभव है कि मात्र इस कथा को सुनने या श्री सत्यनारायण का पूजन करने से काम बन जाएं या फिर उनकी तनिक सी अवहेलना से काम बिगड़ जाएँ। हमेशा ऐसा महसूस किया कि इनकी जितनी कथा हम प्रकट में सुनते हैं, उससे पार्श्व में बहुत कुछ सार छिपा हुआ है।
एक और बात थी जो मुझे हमेशा रुष्ट भी करती थी, मोहित भी करती थी और साथ ही साथ गहरी विवेचना करने के लिए प्रेरित भी करती थी। श्रोतागणों में कम ही लोग सच्चे मन और श्रद्धा से कथा में उपस्थित प्रतीत होते थे। उनके आपस में अपने वार्तालाप चालू रहते थे। इस पर हमारे पुरोहित जी कथा के बीच में एक व्याख्या कर उनको तीन भागों में विभाजित करते थे, श्रोता, स्रोता और सरौता। श्रोता, जो ध्यान से कथा का श्रवण करते हैं। स्रोता, जो कथा का केवल श्रवण ही नहीं बल्कि उसकी विवेचना भी करते हैं। और तीसरे सरौता, जो उपस्थित तो हैं किंतु उनका मन कहीं और रहता है और जो आपस के सरौते की तरह कचर-कचर बातें करते रहते हैं।’ यह सुनकर मुझे हँसी भी आती थी और शांत मन से एकाग्रचित्त बैठने की इच्छा भी जागृत होती थी।
सारी दुनियादारी, व्यवसाय और जीवन के उतार चढ़ाव में यह विवेचना मस्तिष्क के किसी अनजान कोने में अनवरत चलती रही, ऐसा आज प्रतीत होता है। पिछले कुछ वर्षों से मन में यह विचार रहा कि जो कुछ विवेचन किया है, वह आपके समक्ष रखा जाए। इसी प्रयास में यह उपन्यास प्रस्तुत है।
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