सिंध वैदिक काल से लेकर आज तक अनवरत सत्ता संघर्ष का केंद्र रहा है, किंतु सातवीं शताब्दी में सिंध पर हुए आक्रमणों में न केवल सत्तांतरण अपितु आस्थान्तरण, कत्लेआम, मृत सैनिकों के सिर काटकर युद्ध भूमि में उन्हें एक टेकरी के रूप में सजाना, युवतियों को अरब अधिकारियों के मनोरंजन हेतु भेजना, ऐसे अनेक नए प्रचलनों का प्रवेश, भारतीय जनमानस को स्तब्ध करने जैसा प्रयास था| इन प्रयासों में गृह छिद्रों के रूप में देश की अपेक्षा स्वहित को प्रधान मानने वाले वणिक वर्ग के सत्ता तक पहुंचे द्विमुखी सर्पीले अजगरों की भूमिका भी प्रमुख रूप से आकांताओं के हित में प्रभावी रही थी| आंखें सदा घर के डंडों से ही फूटती आई है| परिस्थितियां आज भी लगभग वैसी ही है जैसी आठवीं शताब्दी मे थी| आज के इतिहास के अध्याय जिस रूप में पुनरावर्तित हो रहे है, उनकी जड़े सिंध नरेश दाहर की छलपूर्वक हत्या के रूप में दिखाई देती है|
श्री हारीत, चचदेव, दाहर सेन और दाहर जैसे सिन्धु के ऐतिहासिक पूर्वजों की तत्कालीन परिस्थितियों के विश्लेषण के रूप में यह उपन्यास भारत के प्रबुद्ध लोगों को समर्पित है|