ये किताब कोई कहानी नहीं कहती, बल्कि बयान करती है — कुछ गुज़री हुई हक़ीक़तों को, कुछ बिखरे क़िस्सों को — जो कल्पना का लिबास ओढ़कर सामने आए हैं। वो वाक़िये, जो अलाव के चारों ओर बुज़ुर्गों ने सुनाए थे, अब मेरी ज़ुबानी — नए रंगों से सँवरकर और तसव्वुर के पंख लगाकर — आपको ले चलेंगे उस गाँव में, जहाँ ताड़ के पेड़ों से भूत भी लटकते हैं, और बंदूकें भी। जहाँ मज़ाक, मातम, ख़ुशी और दर्द का फ़र्क़ कई बार एक ही साँस में घुल जाता है। उस गाँव की मिट्टी की ख़ुशबू को बिखेरते हुए, मैंने एक कोशिश की है — उन फ़ौजियों की आवाज़ आप तक पहुँचाने की, जिन्हें हमारा समाज 'आधा फ़ौजी' कह सकता है... या शायद — कहता है।
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ashrafjamal92
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