हमारे देश में विदेश जाना, विदेश में पढ़ना और विदेश में काम करना एक स्टेटस सिम्बल बन गया है। जिनके बच्चे विदेश में पढ़ते हैं या काम करते हैं, वे बहुत गर्व से यह बात सबको बताते फिरते हैं। इनमें से कईयों के बच्चे कभी वापस भारत नहीं आते। ऐसे पेरेंट्स ऊपर से कितना भी दिखावा करें, अंदर से अपने बच्चों की कमी को हर पल महसूस करते हैं, अंदर से टूट जाते हैं। इसी समस्या को यह नाटक उजागर करता है।
साथ ही यह एक समस्या को और सामने लाता है। बच्चे विदेश में बस जाते हैं और अपने पेरेंट्स को भूल जाते हैं। क्या इसके लिए भारतीय पेरेंट्स जिम्मेदार हैं? हां, बिलकुल हैं। कैसे हैं, इसे जानने के लिए इस नाटक को पढ़ना जरूरी है। यह नाटक अभी की इस ज्वलंत समस्या को बहुत प्रभावशाली ढंग से पाठकों/दर्शकों के सामने लाता है।
श्री संजय के नाटक पठनीय भी होते हैं और मंचनीय भी। वह यों कि इनकी भाषा साफ सुथरी है और इनके संवाद अत्यंत कुरकुरे और छोटे होते हैं. नाटक की जान उसके छोटे और क्रिस्प संवाद होते हैं. श्री संजय ने अभ्यास से, परिश्रम से या यह उनके जीन्स में ही है, यह विशेषता पाई है. इनके नाटक पढ़ने में भी उतना ही मज़ा देते हैं और मंच पर अभिनीत होने पर दर्शकों को बांधने की क्षमता रखते हैं.