ये उपन्यास एक विचित्र लेकिन मधुर लव स्टोरी है दो ऐसे पात्रों की, जो बिल्कुल ही अलग दुनियाँ से हैं। एक दलित ब्यूरोक्रेट है तो दूसरा थिएटर डायरेक्टर। अपना अपना लंबा इतिहास साझा करते समय, नज़दीकियाँ दूरियों में और दूरियाँ नजदीकिओं में बदलते देर नहीं लगती। कहा जा सकता है कि ये प्रेम प्रसंग कभी तो आकाश की उचाइयों को छू रहा होता है और अगले ही पल पाताल के धरातल पर औंधे मुहँ गिरा पड़ा होता है। इस यात्रा में इंडियन ब्यूरोक्रेसी, हमारे समाज में व्याप्त जाति की जड़ें, थिएटर संसार और छोटे शहर की मानसिकता के दर्शन खुद बखुद होते रहते हैं। दिलचस्प बात ये है कि पात्रों की नज़दीकियाँ और दूरियाँ, पाठक को अंतिम शब्द तक उपन्यास से नज़दीकी बनाए रखने में मददगार साबित होती हैं।
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