एक रोज़ गले लगने की ख्वाईश में खुद को आईने में झाँकता...
वो अँधेरा सा कमरा...
धूल भरी अलमारी में बस कुछ परदे के पीछे छुपाता...
वो अँधेरा सा कमरा...
तमाम वो बातें जो दीवारों तक रह गईं ख़ामोश हो कर...
उन ख़ामोशियों के शोर में गूँजता...
वो अँधेरा सा कमरा...
रात के मुसाफिरों के लिए एक पनाह-गार...
वो अँधेरा सा कमरा...
वो मेरा कमरा।।
-पियूष त्रिवेदी