"प्यारी नलिनी ! इस समय तुम्हे हल्के मन से संबोधित कर रही हूँ या भारी से पता नहीं, किंतु एक निर्णय तक पहुँचने के बाद अब कुछ भी कठिन नहीं लग रहा। सच कहो तो जीवन में पहली बार यह भी लग रहा है कि अपने ही जीवन का कोई एक निर्णय पूर्णतः स्वयं लिया है, अन्यथा तो अब तक सभी कुछ भाबोजी-धाजी और समाज ही निर्धारित करता आया था और जो उन्होंने तय न किया वो नियति ने तय कर दिया था।"
‘एक थी शैल बाईसा’ उपन्यास शैल बाई की कहानी के साथ ही मेघ सिंह जी और केसर बाई के प्रेम और अनुराग की कहानी भी है, ये डावड़ी सरबरी बाई के रेगिस्तान से जीवन को नकारते रहने की कथा भी है। नलिनी बाई के स्थापित मूल्यों में विश्वास की और दौलत बाई के ब्याज से समाज द्वारा की जा रही नारी कंडीशनिंग की कहानी भी है। ये कहानी आज से सौ वर्ष पहले के उस राजस्थान और उसके गाँवों की कहानी है जिसकी पगडंडियाँ पक्की सड़कों के नीचे दबती जा रही है। जिसके वस्त्रों और आभूषणों की विविधता सिमट कर पतलून के बेल्ट संग बंधती जा रही है। ये कहानी उन रिवाजों की भी हैं जिन्हे़ नेत्रों से हृदय और हृदय से नेत्रों तक भर लेने की चाह होती थी और अंततः ये कहानी उन अपनों की भी है जिनके हृदय में ईर्ष्या-डाह की अग्नि रह-रह कर धधकती है और एक हरियल बाग को दावानल में बदल देती है।