यह उपन्यास मनोवैज्ञानिक ढंग से प्यार के उस अछूते शिखर को छूता है, जहां पर दो ‘सोलमेट्स’ का प्यार भरा सफर शुरू होता है। यह कटु सत्य है कि हम सभी के जीवन में सोलमेट्स होते हैं और मिलते हैं। उनका निःस्वार्थ प्यार रिश्तों के बंधन से परे महज मानसिक सुख देने तक ही सिमित होता है। उनके मिलने बिछड़ने का ये सिलसिला मोक्ष की दहलीज तक चलता रहता है। उनको ना तो जन्म–जन्मान्तर की अड़चनें रोक पाती हैं और ना ही समय सीमा या उम्र का बंधन उन्हे बांध पाता है। फिर भी हमारे समाज की पुरातन सोच के बोझ तले पिस जाना कईयों की नियति बन जाती है। उम्र के आख़िरी पड़ाव पर जब जिस्म साथ ना दे और ना ही जीने का जज्बा बचा हो, ऐसे में कोई सोलमेट फिर से जीने की ख़्वाहिश को ज़िंदा कर दे तो क्या होना चाहिए? ‘फेस ब्लाइंडनेस’ की बिमारी से संघर्षरत मुख्य पात्र प्रवीण कुमार को भी जीवन के आख़िरी मोड़ पर किसी के प्यार की सुगंध का एहसास हो जाता है। फिर उसे क्या करना चाहिए? यह उपन्यास ऐसे अनेकों प्रश्नों को अपने में समाहित किये है। रिश्तों और भावनाओं के भंवर में फंसे सभी पात्रों के माध्यम से मिलनेवाले मार्मिक जवाब, हमारे दिल में एहसासों की टीस उकेरते हैं।
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