मनुष्य, व्यावहारिकता पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं लेकिन एक शिशु या बीज कभी चिंतित नहीं होते कि वे कैसे विकसित होंगे। वे बढ़ने के लिए पैदा हुए हैं और उनके विकास के लिए एकमात्र स्थिति की आवश्यकता है उचित या अनुकूल वातावरण। यह उचित या अनुकूल वातावरण हमारी प्रार्थना है। एक विश्वासी के रूप में हमें परमेश्वर से प्रार्थना एवं करने की आवश्यकता है और प्रदान करना परमेश्वर जानते है क्योंकि उन्होंने हमसे वादा किया है कि वे हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देंगे। मत्ती 7:7-8 “मांगो, तो तुम्हें दिया जाएगा…...क्योंकि जो कोई मांगता है, उसे मिलता है…”।
“प्रार्थना का महत्त्व भाग-1” में मैंने विभिन्न प्रार्थनाओं और उनके महत्व को साझा किया था और इस पुस्तक में जो उसी पुस्तक का दूसरा भाग है , मैंने कुछ और प्रकार की प्रार्थनाएँ साझा किया हूँ, जिनका मैं एक दशाब्दी से भी अधिक समय से अभ्यास और प्रचार कर रहा हूँ। पतरस हमें बताते है कि “सब बातों का अन्त तुरन्त होने वाला है; इसलिये संयमी होकर प्रार्थना के लिये सचेत रहो”(1 पतरस 4:7)। प्रार्थना का अभ्यास करना आवश्यक है।
चाहे प्रार्थना गिड़गिड़ाहट, निवेदन, स्तुति, धन्यवाद, उपासना, रोना, फुसफुसा, या नृत्य का हो, परमेश्वर सभी प्रार्थनाओं को स्वीकार किये और अपने बच्चों को जवाब दिये। प्रभु यीशु को भी प्रार्थना करने की आदत थी यदि यह उनके लिए महत्वपूर्ण था तो यह हमारे लिए भी महत्वपूर्ण होना चाहिए।।
मैं परमेश्वर से यह प्रार्थना करता हूं कि यह पुस्तक सभी पाठकों के लिए एक वरदान बने और पवित्र आत्मा कुछ नई बातें बताए और प्रकट करे। परमेश्वर आपको आशीष दे। आमीन!