बिता दी हों सदियाँ हादसों में जिसने,
वो शक़्स किसी ठोकर से नहीं थकता।
मोहब्बत है मुझमें हर सितम भुलाने की,
किसी से रंजिश, नहीं जनाब मैं नहीं रखता।।
ढ़लती शाम से नाराज़गी अच्छी नहीं,
हर पल बदलती ये ज़िंदगी सच्ची नहीं।
है महज़ मज़ाक और तुम ग़मगीन हो,
सब्र करो इमारत ये इतनी कच्ची नहीं।।