मन की सुंदरता

आत्मकथा
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जंगलों से घिरे छत्तीसगढ़ के जिस गांव में मेरा इस बार तबादला हुआ था, वह अत्याधिक पिछड़ा हुआ व नक्सलवाद से प्रभावित था. यद्यपि मैं प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्त होकर वहां कार्यरत था लेकिन गांव के लोग मुझे बड़े मास्टर जी कहते और मैं उनके ज्ञान के स्तर को समझते हुए अपने मन को यह कहकर संतुष्ट कर लेता कि - "यहां कौन मुझे प्रिंसिपल साहब कहकर संबोधित करेगा !!! "

स्कूल की बिल्डिंग गांव के अन्य पक्के मकानों के मुकाबले में ज्यादा आधुनिक व सुविधाओं से युक्त थी पर जन जागरुकता कम होने व नक्सलियों के खौफ के कारण स्कूल में छात्र छात्राओं की संख्या संतोषजनक नहीं थी, ऊपर से रोज - रोज गांव में कोई न कोई दुर्घटना घटित होती रहती। मैं यहां के वातावरण में घुलमिल नहीं पा रहा था पर सरकारी नौकरी की विवशता में यह सब सहन करना ही मेरा धर्म बन चुका था। स्कूल के स्टॉफ के अतिरिक्त गांव में कुछ ही लोग मुझे इस काबिल लगे जिन्हें अपने पास बैठाकर बातचीत की जा सके और वह काले भयंकर राक्षस जैसा कालू तो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था। एक तो गूंगा और ऊपर से सबको अपनी बड़ी बड़ी भेड़िये जैसी आंखों से घूर घूरकर देखता रहता। मैंने उसके बारे में जब अपने अर्दली किशन से जानना चाहा तो किशन उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करते हुए बोला - 'कुछ भी कहिये सर... मन का बहुत भला है कालू।' पर मैं किशन की बात से कतई सहमत न हो सका। क्यों? मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं था।

स्कूल से कुछ दूरी पर स्थित प्रधानाचार्य आवास पर नियुक्त अर्दली सतराम एक दिन, जब मैं स्कूल के कार्यों में व्यस्त था ; दौड़ता दौड़ता मेरे पास आया और हांफते हुए बोला -' साब आपके घर कोई मिलने आया है।' मैंने काफी पूछा कि मुझसे मिलने कौन आया है? लेकिन सतराम ने बताकर न दिया। वह मुझे ; अंग्रेज़ी में कहें तो सरप्राइज देना चाहता था। आवास पर पहुंचा तो वास्तव में यह ग्रेट सरप्राइज ही था, मेरा प्यारा बेटा बिट्टू और मेरी अर्धांगिनी कामना आये हुए थे। चार वर्षीय मेरा बिट्टू एक माह बाद अपने पापा को सामने देखकर पापा - पापा - पापा कहते हुए दौड़कर आकर मुझसे लिपट गया। मैंने भी झुककर उसे गोद में उठा लिया। कामना यह पिता पुत्र का स्नेह देखकर आनंदित हो उठी। मैंने कामना की ओर देखते हुए कहा - एक कॉल तो कर देती कामना, मैं तुम्हारे यहां आने का सारा इंतजाम कर देता। ' कामना मुझे छेड़ते हुए बोली -' इंतजाम !!! आप हम दोनों को यहां आने ही नहीं देना चाहते। एक महीना हो गया कहते कहते पर आप बहाने पर बहाने बनाएं जा रहे हैं। उधर यह आपका बेटा मेरी जान खाये जा रहा है - पापा से मिलना है बस पापा से मिलना है। बताईये क्या करती ? बस इसलिए बिना बताये चली आई बिट्टू को लेकर। ' मैं मुस्कुराते हुए बोला -' चलो जो किया अच्छा किया। अब संभालो अपने घर को। 'यह कहकर घर की चाबियां कामना को सौंप दी और बिट्टू को गोद लिए लिए यह कहकर पुनः स्कूल की ओर चल दिया -' चलो बिट्टू बाबू आपको अपना स्कूल दिखाते हैं। '

कामना व बिटटू को आये अभी सप्ताह भर भी न बीता था कि गांव में एक घटना घटित हो गयी। स्कूल में तीसरी कक्षा में पढ़ने वाला एक बच्चा गांव से गायब हो गया। माता पिता का कहना था कि - 'कुछ दिन पहले एक आदमी धमकी देकर गया था कि सरकारी स्कूल से बच्चों का पढ़ना-लिखना बंद कर दो अन्यथा हम उन्हें मौत के घाट उतार देंगे।' गांव के कुछ लोगों का मानना था कि जंगल का भेड़िया उसे अपना शिकार बनाकर ले गया है। कुछ दबी जुबान से उस बच्चे के अपहरण के पीछे किसी तांत्रिक का हाथ बताते। बहरहाल तीन दिन बाद उस बच्चे की लाश जंगल में पाई गयी और पुलिस उसकी हत्या की जांच में जुट गयी थी। मेरे मन मस्तिष्क को इस घटना ने दहलाकर रख दिया था। मैंने कामना को सख्त हिदायत दे दी थी कि मेरी अनुपस्थिति में बिटटू को घर से बाहर न निकलने दे। कामना पूरा पूरा ध्यान रखती लेकिन एक दिन मुझसे ही भूल हो गयी। बिट्टू स्कूल परिसर में बच्चों के साथ खेल रहा था सो मैंने उसकी चिंता नहीं की। साढ़े तीन बजे सायं जब स्कूल की छुट्टी का समय हुआ तो मैंने अर्दली घोघू को बुलाया तथा छुट्टी की घंटी बजाने व बिट्टू को मेरे पास ले आने का आदेश दे दिया। छुट्टी की घंटी बजने के दस मिनट बाद तक जब घोघू बिट्टू को लेकर मेरे पास नहीं पहुंचा, तब मैं घोघू को आवाज लगाता हुआ ऑफिस से बाहर निकल आया. मैंने देखा घोघू घबराया हुआ सा मेरी ही तेजी से बढ़ा चला आ रहा था। वह नवंबर की मीठी ठंड में भी पसीने पसीने हो रहा था। वह मेरे समीप आकर हांफता हुआ बोला - 'साब जी बिट्टू बाबू स्कूल में कहीं नहीं है। यह सुनते ही मेरा कलेजा मुंह को आ गया। कुछ क्षण किंकर्तव्यविमूढ़ सा मैं वहीं खड़ा रहा फिर बिना देर किए आवास की ओर चल पड़ा। मेरा मन मेरी लापरवाही पर मुझे कचोट रहा था। आवास पर पहुंचा तो पाया कामना आवास के द्वार पर खड़ी आस पड़ोस की कुछ महिलाओं से बातें कर रही थी। मुझे अकेला आता देखकर उसने स्वाभाविक प्रश्न किया - 'बिट्टू कहाँ है?' मैंने हड़बड़ी में प्रश्न के जवाब में प्रश्न किया - 'घर नहीं पहुंचा? स्कूल में तो कहीं नहीं है।' कामना के मुख पर यह सुनते ही चिंता के भाव उभर आये। तभी मैंने पीछे से दौड़ कर आते किसी की पदचाप सुनी। यह बदहवास सतराम था। उसने पास आते ही भर्राये गले से कहा -' साब जी.... बाबू जी.... आपके बबुआ को..... भेड़िया उठाकर.... जंगल की ओर... ले गया है। कालू गया है पीछे-पीछे। आईये हम भी लाठी डंडे लेकर जंगल की ओर चले।' सतराम की बात सुनते ही कामना को चक्कर आ गये। उपस्थित महिलायें उसे दिलासा देती हुई अंदर ले गयी। मैं कुछ क्षण के लिए सिर पकड़ कर वहीं जमीन पर बैठ गया। कानों में पापा पापा पापा की बिट्टू की मीठी आवाज़ गूंजने लगी और बंद आंखों में उसका मासूम चेहरा। मैंने शीघ्र ही अपने को संयमित किया। इतने में गांव के अन्य लोग भी यह खबर सुनकर लाठी डंडों के साथ एकत्रित हो गये। कोई कहता चिंता मत कीजिए और कोई आपस में यह कहकर मेरी हिम्मत तोड़ देता कि बच्चे का बचना मुश्किल जान पड़ता है। हम सब हिम्मत कर फिर भी जंगल की ओर बढ़ चले। थोड़ी ही दूर चले थे कि कालू लहूलुहान अवस्था में बिट्टू को गोद में उठाए आता हुआ दिखाई दिया। मेरे समीप आने पर कालू ने बिट्टू को मेरे गोद में सौंप दिया और निढ़ाल होकर जमीन पर गिर पड़ा। बिट्टू के सामान्य हल्की सी खरोंच थी अतः मैंने सतराम की गोद में उसे देते हुए उसकी मम्मी कामना के पास उसे भेज दिया ताकि वह चैन की सांस ले सके और कुछ लोगों की सहायता से कालू को उठाकर गांव के प्राथमिक चिकित्सालय से प्राथमिक चिकित्सा दिलाकर, उस गांव की एकमात्र ई रिक्श में बिठाकर शहर के अच्छे अस्पताल पहुंचा। भगवान की कृपा से ठीक समय पर कालू की चिकित्सा हो गयी। मेरे मन में बार बार बस यही गूंज रहा था कि - ' आज कालू ने मेरे लिए जो किया है उसका अहसान शायद ही मैं कभी उतार पाउंगा।' इस घटना ने मेरी उस नीच सोच को भी सदा सदा के लिए बदल कर रख दिया कि मन की सुंदरता का अनुमान कभी बाहरी रंग रूप से लगाया जा सकता है। आज पूरे संसार में मुझे कालू से ज्यादा सुन्दर इंसान नजर नहीं आता।

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