JUNE 10th - JULY 10th
डबाडब भरे उसके नैन चिराग आखिर छलक पड़े | अश्रु के कुछ मोती, उसके सेब से लाल भरे-पूरे गालों पर फूट कर दो धारों में नीचे की ओर भिखरते हुए उसके कुदरती गुलाब से सुर्ख अधरों के बीचों-बीच बनी लकीर के आर-पार भर कर तैरने लगे | भावों के इन अनमोल मोतियों को बहने से रोकने का प्रयास भी नहीं किया उसने | वह बह जाने देना चाहती थी उन्हें | शायद इस लिए, कि उसके बाद मन हल्का हो जाए | कुछ सुकून मिले | दिल में भरा घुटन का गुबार, ग्लानी, गुस्सा और अपनीलाचारीके ये मिले-जुले काले –भूरे मटमेले बादल सावन की घटाओं की तरह अब तक उसके अंदर ही अंदर उमड़-घुमड़ रहे थे | जुदाई के वक्त इसबाँध का टूटना कोई अनहोनी बात भी तो नहीं | स्वाभाविक था कि इस मौके पर मैं भी भावुक हुए बिना न रह सका | लेकिन एक आत्मसंतोष एक अलग तरह की ख़ुशी का ओहरा मेरे चारों और बन गया था उस वक्त | कुछन पा लेने के बाद भी ज्यों सब-कुछ पा लिया था मैंने इस एक रात में | वह बस में जा बैठी और बस धीरे-धीरे कच्चे रोड़ पर आगे कीओररेंगने लगी |
मैंने भी राहत की सांस ली | इधर-उधर देखा कि कहीं किसी ने देखा तो नहीं हम दोनों को एक साथ | गनीमत ये रहीकि सर्दियों की इन जमी हुई सुबहों में, बस कीसवारियों के सिवा कोई पंछी भी पर नहीं मारता यहाँ |सड़क पर यहाँ से वहाँ तक अब केवल धूल का हल्का सा गुबार बाकी था | आज गाँव से इस बस में जाने वाली सवारी तो कोई नहीं थी, हाँ दो-तीन आदमी और औरतें इस बस से आकर यहाँ उतरे और गाँव की ओर निकल गए | शायद उसी मैरिज फंक्शन में जा रहे हैं |
मुड़कर दो-तीन क़दम रखते ही मैं वापस अपने रूम में दाखिल हुआ और द्वार बन्द करअंदर से चिटकनी चढ़ा दी |लोवर की जेब से बचे हुए पैसे निकाल कर गिने,हिसाबलगाया और अटेचीमेंरख दिए | भूमि को मैंने सिर्फ दो सौ रूपये ही दिए थे | सौ रूपये उसके स्टेशन तक का बस किराया और रास्ते में जरूरत पड़ने पर सौ रुपये अतिरिक्त |उसने तो सिर्फ किराया ही माँगा था | थाम ही नहीं रही थी सौ से ज्यादा | मैंने ही समझाया था उसे | “रास्ते में कहीं बस ख़राब हो गई या कोई जरूरत पड़ गई तो ?”रूपये थामते हुए उसके हाथ कांप रहे थे | होंठ लरज रहे थे, गला भर आया था उसका | वह भावुक होते हुए मेरे पाँवोंपर गिर पड़ी थी | उस वक्त तो मुझे बस ये जल्दी थी कि किसी तरह ये मेरे रूम से बाहर चली जाए | उसे कोई सांत्वना भी नहीं दे सकता था | मेरे मुंह से बस इतना ही निकला था “अब जाओ भूमि, बस अपना ध्यान रखना ...अब जल्दी जाओ बसनिकल न जाए कहीं !या कोई देख...” उसने हाँ में सिर हिलाया और फुर्ती से बाहर निकल गई थी |
मेरादिल कर रहा था कि रजाई लेकर आराम से लेट जाऊं लेकिन, ड्यूटी जाना था | आँखों में नींद की मिर्ची रड़क-रड़क जाती थी | जाहिर है पूरी रात आँखों में कटी थी, अब सूरज के चढ़ने के साथ-साथ नींद का खुमार भी चढ़ना ही था |
मैंने स्टोव पर दाल पकने को चढ़ाई और खुद आटा गूंथने लगा | खिड़की पर बैठा रेडियो गाने लगा “बना के क्यों बिगाड़ा रे ...”लता मंगेशकर का चेहरा और फिर भूमि का चेहरा सामने आ गया | मैंने रेडियो बन्द कर दिया | फिर आटा गूंथने लगा | रात वाली बात याद आ गई “नहीं सर जी, आप नहीं मैं बनाउंगी आज रोटी |’’मेरे बार-बार मना करने पर भी उसने मेरे हाथों से खींच ली थी परात | मुझे जबरदस्ती उठा कर कुर्सी पर बैठा दिया | चकला-बेलना एक ओर रख उसने फटाफट उतार दिये थे पतले-पतले फुल्के हम दोनों के लिए | सब्जी तो मैं पहले ही बना चुका था, उसके आने से पहले | उसने पूछा था बनाते वक्त “आप गर्मागर्म खा लीजिये सर जी, मैं डाल देती हूँ |”मैंने किताब पढ़ते हुए कहा था “नहीं बना लीजिये फिर हम साथ में खायेगें |”
मेरे दोनों कान दरवाजे पर लगे थे कि कहीं कोई आ न जाए | दीवारों के भी कान होते हैं सुना था लेकिन असलियत कुछ ओर होती है अपना एक शे’र याद आ गया था “बैठा होगा कोई छुप कर / दीवारों के कान नहीं है |” फिर दीवारों पर भी ध्यान दिया कि कहीं कोई है तो नहीं बाहर |
रात का खाने खाने के बाद चिंता हुई कि बिस्तर एक है अब उसे कहाँ सुलाया जाए| दो फोल्डिंग बेड तो थे लेकिन बिस्तर एक ही था| मैं ठहरा छड़ा बंदा, ज्यादा कपड़े रखने का क्या मतलब ? घर से इतनी दूर मेरे पास कोई ठहरने के लिए आता भी नहीं | इस लिए कम से कम सामान रखा है रूम में, बस काम चल जाए, इतना भर | मैं ही क्या गाँव में रहने वाला बाहर का हर एम्प्लोय कम से कम सामान में काम चलाता है |
बिस्तर की उधेड़-बुन में तो मैं खाना खाते वक्त ही लग गया था और प्लान भी लगभग तैयार ही था, बस अब उस पर अम्ल करने का वक्त था | जब तक भूमि ने बर्तन-भांडे मांजे तब तक मैंने अपना दूसरा बेड निकाल कर अपने बेड के साथ लगा दिया | रूम में जगह ही इतनी थी कि दो फोल्डिंग बेड सट कर डबल बेड की तरह ही लग सकते थे | आधा रूम किचन था और आधा बेडरूम |मैंने अपनी रजाई भूमि को दे दी और खुद एकमात्र डबल बेड का कम्बल ले लिया आधा ऊपर आधा नीचे | और क्या करता ! भूमि बार-बार शर्मिंदा हो रही थी “मैंने आपको परेशान कर दिया सर जी | मैं पता नि कैसी निभाग हूँ, मुझे वहीँ रहना चाहिए था | क्या होता ज्यादा से ज्यादा मुझे मार देते ! और क्या होता इससे बाकी !” मैं उसे समझाने की कोशिश करता “भूमि, इसमें तुम्हारा नहीं व्यवस्था का दोष है ! हमारे समाज का दोष है मैं भी सुनता हूँ ये सब बातें ! देखता हूँ अपनी इन्हीं आँखों से लेकिन कुछ कर नहीं पाता | शायद इस लिए कि मेरा अपना कोई आप जैसों में शामिल नहीं है | बस इतना कर सकता हूँ कि जब आज तुम आई हो हेल्प के लिए तो मैं करूँगा | इसके लिए मुझे समाज से कुछ सुनना पड़े, भुगतना पड़े तो भी कोई बात नहीं | मैं तुम्हारे साथ खड़ा हूँ | न्याय के साथ खड़ा हूँ और यहाँ तुम्हें मेरे होते हुए कोई हानि नहीं पहुंचा सकता |
हम बातें कर रहे थे लेकिन न तो मैं और न ही भूमि मुझ से नज़रें मिला रही थी | शायद ये जरुरी भी था | ये परीक्षा की घड़ी तो थी ही मेरे लिए भी और उसके लिए भी | हम दोनों के बीच बस कुछ इंच का ही फासला तो था | बुजुर्गों से सुना था कि जब बेटी जवान हो जाए तो उसके बाप को भी उसके साथ अकेले रूम में नहीं सोना चाहिए |
भूमि को इससे पहले मैंने जवान ही देखा था | बला की खूबसूरत लड़की थी वो आज भी वैसी ही है, उसकी मैरिज को दो ही साल तो हुए हैं अभी | मेरे देखते-देखते उसकी मैरिज हुई थी | दूर गाँव का एक गरीब लड़का ले गया था उसे भगा कर | इस से पहले बस दुआ सलाम ही हुई थी हमारी जब वह अपने पापा के पास आती कभी या उसकी मैरिज से पहले, जब गावों भर उसका दीवाना हुआ फिरता था | माँ बचपन में मर चुकी थी बूढ़ा बाप एक भाई, भाभी और दो उनके बच्चे थे उसके पेवके में |
ठीक मेरे पहलु में सोई भूमि थोड़ी देर हिलती-डुलती रही, कई बार तो लगा जैसे भूकंप आ रहा हो | फोल्डिंग बेड भी पुराने थे | वह जानदार मोती-तगड़ी और जवान थी | बेड की चीखें निकलती रही | बेड की कराहट से मेरी आती-आती नींद जाती रही | मेरे साथ पानी की गर्म बोतल पड़ी थी | उसी ने शुरू में दो तीन झपकियाँ नींद की लेने दी मुझे | ज्यों-ज्यों बोतल ठंडी हुई मैं भी ठंडा होता गया | उसे भी शायद नींद आने में परेशानी हो रही थी | वह नींद में कई बार बड़बड़ाई भी “ठण्ड लग रही है ह्ह्ह ख ख ख |” मैं अनसुना करता रहा, करता भी क्या अपनी रजाई तो उसे पहले ही दे चूका था अब क्या देता ? शरीर की गर्मी मरते आदमी में जान फूँक देती है और इसके मुकाबिल कोई रजाई कोई कम्बल कोई हीटर बना भी नहीं दुनिया में | लेकिन ये तेल को माचिस के पास ले जाने जैसा था जो मैं कर नहीं सकता था | वह मेरे निकट तक आती फिर रेंगकर दूर हो जाती | हूँ-हाँ करती रही | मैं सांस बंद कर उसकी हर हलचल सुनता रहा | दिल में तो मेरे भी कई उबाल आये-गए लेकिन दिमाग हर बार उबाल पर पानी का छींटा मारता रहा |
जब तक बोतल की गर्मी में नींद आ सकती थी तब तक उसकी हरकतों ने आने नहीं दी और जब वह शांत हुई तो पानी की बोतल भी ठंडी पड़ गई | अब एक कम्बल, मैं और मेरी तन्हाई | लड़ता रहा रात भर ठण्ड से | जब शरीर कांपने लगा दांत कड़कड़ाने लगे तो हिम्मत के लिए लद्दाख में तैनात फोजियों के बारे में सोचने लगा | वे लोग जो बर्फ में दिन-रात रहते हैं “वे भी तो इंसान हैं ! हम तो अपने घरों में हैं, छत के नीचे हैं फिर भी |” इस तरह हिम्मत की बांह पकड़ कर सुबह के मुंह तक पहुँच गया | सुबह की लाली को मुंह दिखाया तो नींद आँखों में थी | लेकिन रात की हर चाल पर जीत दर्ज करने की ख़ुशी भी आँखों में थी |
पिछली रात की रील चलती रही | रोटी बन चुकी थी, स्नान हो चुका था और अब मैं नाश्ते के लिए बैठा था | एक कटोरी दाल और चार फुल्के प्लेट में डाले और लकड़ी के पटड़े पर बैठ गया | स्टोव पर चाय का पानी रख दिया | आज इसमें एक कप दूध और डालने की जरूरत नहीं |
कल चाय ही तो बना रहा था मैं उस वक्त जब दरवाजे पर नॉक किया था उसने | और मैंने “अब कौन आ गया गोधुली के टाइम |” कहते हुए दरवाजा खोला था तो सामने खड़ी थी भूमि | चेहरा पसीने से लथपथ, हांफ रही थी बुरी तरह से लपक कर अंदर आई और खुद ही दरवाजा बंद कर दिया था | मैंने पानी का गिलास दिया, बैठने का इशारा किया कुछ देर आराम करने के बाद पानी पी कर उसने बताया था “ गाँव में शादी है वहाँ बुलाया था मुझे भी | मुझे नहीं पता था कि इस लिए ! मैं तो अपने ठाकुर समझ कर आई थी | ठाकुरों के आठ-दस लड़के मुझे उठा कर ले गए थे एकांत में शराब डाल रहे थे मेरे मुंह में, जबरदस्ती |” उन्हीं से छूट कर आई हूँ | हाँफते-हाँफते कहा था उसने | मैंने उसे चाय देते हुए पूछा “लेकिन ऐसा क्यों कर रहे थे वे ?”“सर जी, हम गरीब की जोरू ही सबकी भाभी नहीं होती, गरीब की लड़की भी सबकी यार होती है | हम लोग गरीब हैं और ये लोग हमारी बहनों-बेटियों से ही अपनी भूख मिटाते रहे हैं |” बोलते हुए उसका मुंह लाल हो गया था | “वैसे तो हमारे हाथ का पानी नहीं पीते ये लोग, कहते हैं हरिजन हो और हमारे शरीर को ऊपर से नीचे तक खा जाते हैं शराब पी कर | इतना ही नहीं इनका कोई मेहमान आता है न बाहर से उसके सामने भी हमें ही परोसते हैं | हमारी बहन-बेटियां भी खुश हो जाती हैं सौ-पचास रूपये लेकर |” उसने एक गहरी सांस लेते हुए अपनी बात पर जोर दिया “सर जी, गाँवों में वेश्यालय नहीं होते |”
अनन्त आलोक : साहित्यालोक बायरी डाकघर व तहसील ददाहू जिला सिरमौर हिमाचल प्रदेश 173022 mob: 9418740772
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