पहरेदार |

Amit Agarwal
बाल साहित्य
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पहरेदार |

एक बार फिर से उस बड़ी कंपनी के मालिक ने खुद को भगवान मान लिया हैं | अब उन्हें सबसे नौजवान लोगों की जरूरत हैं | इसलिए उन्होने अपने सभी पुराने छोटे – मोटे कर्मचारियों की एक सूची बनवाई हैं और उन सभी को एक ही कतार में खड़े होने को कहा हैं | मैं इस परस्थिति से भलीं भांति परिचित हूँ और मुझे आज भी वो दिन याद हें जब.....

मैं अपने स्कूल से लौटा ही था और मैंने देखा माँ दरवाजे की चौखट पर बैठी अपनी आँचल से मुंह को छुपाए रो रही थी | परंतु उन्होनें मुझे देखते ही अपने आँसू छुपा लिए और रसोई में चली गयी |

‘माँ, आपका और पिता जी का आज फिर से झगड़ा हुआ हें ?’

‘ये तुझे किसने बोला,’ माँ रसोई से मुझे झाकती हुई बोली |

‘तो आप रो क्यू रही हो ?’

‘आज आलू खत्म हो गए थे, माँ ने जवाब देते हुए कहा | ‘तो मैंने भिंडी की सब्ज़ी बनाई हें |’ तू कपड़े बदलकर हाथ मुह धो ले मैं खाना लगाती हूँ |

‘तो माँ तुम आलू खत्म होने की वजह से रो रही थी ?’

उन्होने कोई जवाब नहीं दिया था, लेकिन मैं उनके सिसक - सिसक कर रोने की आवाज साफ - साफ सुन रहा था | माँ को मैंने इससे पहले कभी इस तरह रोते नहीं देखा था, यहा तक की जब पिता जी गुस्से में कभी कभार माँ पर बेफिजूल ही चिल्ला उठते थे तब भी नहीं | मगर उन्हे इस तरह भावूक देखकर मैं भी अंदर से सिहर चुका था की आखिर मामला क्या हें |

मैंने स्कूल यूनिफ़ोर्म बदलकर हाल्फ पैंट और सफ़ेद हाल्फ टी – शर्ट चढ़ा लिया जिसे पिता जी पिछली दिवाली पर लाये थे, हालकि अब उस शर्ट का रंग फीका पर चुका था जो आईने में साफ झलक रहा था | मगर मुझे अभी दो माह तक सब्र रखना था ताकि आने वाली दिवाली पर मैं पिता जी से एक अच्छी सी लाल रंग की नई शर्ट और एक काला पैंट मांग सकु |

‘गोलु,’ माँ ने रसोई से पुकारते हुए कहा |

मैं भागता हुआ उनके पास गया और मैंने देखा माँ हमेशा की तरह ही हाथ में खाने की थाल लिए बैठी थी और अपने माथे का पसीना साड़ी से पोछती हुई रोटी के चार टुकड़े करके उसे फुक फुक कर ठंडा कर रही थी | वे ऐसा अक्सर किया करती थी ताकि मैं हरबराहट में पिछली बार की तरह अपना मुंह न जला लूँ |

वैसे तो मैं अपनी दस्वी की परिक्षा देने वाला था, मगर माँ के लिए तो वही नन्हा सा अपनी पीठ पर खुद से ज्यादा वजन का बेग टाँगकर स्कूल जाने वाला पाँच साल का गोलु – मोलु सा दुलारा था |

‘जड़ा चख कर बता भिंडी में नमक कम या ज्यादा तो नहीं, इससे पहले की मैं उनसे उनकी आंसुओं का कारण पूछ पाता उन्होने मुझे यह चुनौती दे डाली |’

‘काफी स्वादिष्ट बनी हें,’ ‘मैंने पहला निवाला चबाते हुए कहा |’ मगर आज मैं कम ही खाऊँगा |

‘क्यू?’, क्या तूने फिर से रास्ते में कुछ अटपटांग चिजे खायी हें ?’

‘नहीं माँ,’ ऐसा कुछ भी नहीं हें | आज अमन के घर जाना हें, उसका जन्मदिन हें और मुझे कुछ रुपए भी चाहिए उसे तौफ़े में देने के लिए |

‘कितने रुपए चाहिए तुझे ?’

ज्यादा नहीं माँ, मुझे बस दो सौ रुपए ही चाहिए | हम सभी दोस्त दो – दो सौ रुपए मिलाकर अमन को कुछ अच्छा सा तौफा देने वाले हें |

‘हाँ, बेटा यह अच्छा रहेगा | रुक मैं पैसे लेकर आती हूँ |

‘माँ रुको जड़ा, ‘मैंने पिछली रात को ही पिता जी से इस बारे में बात कर लिया था और उन्होने मुझसे कहा था कि जब तू दोपहर का खाना लेकर शोरूम आएगा तो मैं तुझे अपनी वेतन से पाच सौ रुपए एडवांस लेकर दूंगा | दो सौ तू अपने पास रख लेना और बाकी के तीन सौ रुपए माँ को दे देना घर का राशन खत्म होने वाला हें |’

मेरी बात सुनते ही माँ भावूक हो गयी थी और फूट फूट कर आँसू बहाने लगी | मैं पूरी तरह से भौचक्का रह गया माँ को इस हालत में देखकर |

‘बेटा गोलु,’ पिता जी की आवाज़ मेरे कानो में गूंजी और में हैरान हो गया क्यूकी वे अभी - अभी अपने कमड़े से बाहर आए थे और घर की बिजली ना होने के कारण उनका बदन पसीने से भीग चुका था |

‘आज आप काम पर नहीं गए पिता जी ?’

‘अब तुझे पिता जी के लिए खाना ले जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी,’ माँ बोली |

मैं एकाएक माँ की तरफ मूड गया और उन्हे आश्चर्य भरी नजरों से देख रहा था |

‘उनकी जगह पर किसी नौजवान को नौ हजार रुपए प्रति माह पर पहरेदार के रूप में बहाल किया गया हें | कंपनी के मालिक का मानना हें की अब तेरे पिता जी को घर पर आराम करनी चाहिए | पहरेदारी की नौकरी अब उनके बस की नहीं रही | वे अब काफी बुढ़े और कमजोड़ हो गए हें | ‘माँ की बातों में काफी दर्द झलक रहा था जिसका अनुमान लगा पाना किसी के भी वश में नहीं था |’ मगर फिर भी वो तवे पर रोटी बड़ी एहतियात से सेकती हुई उसे गोल - गोल घूमा रही थी | शायद, मैं जानता था की माँ अपने दर्द को बाहर आने नहीं देना चाहती थी |

‘वे लोग ऐसा कैसे कर सकते हैं | पिता जी ने उस कंपनी को अपने बीस साल दिये हैं,’ ‘यह बोलते बोलते मेरी आंखो से भी आँसू टपकने लगे थे |’

पिता जी की तनख़ाह आठ हज़ार रुपए प्रति माह थी और इस तरह से उनका हर दिन का दो सौ छियासठ रुपए बनता था | जब मैं पैदा हुआ था तब से पिता जी उस कंपनी में पहरेदार की नौकरी कर रहे थे और माँ ने बताया था की ऐसा एक भी दिन नहीं था की पिता जी ने छुट्टी के लिए किसी भी तरह का बहाना किया हो या सच ही में बुखार, ख़ासी जैसी स्थिति मैं नौकरी पर नहीं गए हो |

‘आज भी याद हें वो दिन जब मैं बचपन में स्कूल ना जाने के लिए अक्सर नाक मुह धुना करता था तब पिता जी ने मुझसे कहा था कि, ‘मैं अगर एक भी दिन काम पर जाने से नागा कर दूंगा तो मैं अपने दो सौ छियासठ रुपए हमेशा के लिए खो बैठूँगा जो मुझे दोबारा कभी नहीं मिल पाएंगे और इसी तरह से अगर तुम भी स्कूल जाने से नागा करते रहोगे तो उस दिन जो चीज तुम अपने शिक्षक से सीखने वाले होगे वो तुम फिर दोबारा कभी नहीं सीख पाओगे |’ तब से मैंने भी कभी स्कूल नागा न करने की ठान ली थी मगर कई बार बीमार पड़ने की वजह से मुझे खुद पिता जी ने ही स्कूल नहीं भेजा था जो उनका मेरे प्रति काफी सारा स्नेह और चिंतित होना था |

‘बेटा गोलु, ‘फिक्र मत कर मैं जल्द ही दूसरी नौकरी ढूंढ लूँगा तु बस अपनी दस्वी की परीक्षा की तैयारियों पर ध्यान केन्द्रित कर बेटा, मुझे तुमसे बहुत उम्मीद हें |’ इतना कहकर वे माँ की बगल में बैठ गए थे और माँ ने उन्हे चार रोटी और भिंडी की सब्जी परोश कर दी |

समाप्त

-अमित अग्रवाल

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