JUNE 10th - JULY 10th
"ऐ गुडिया ज़रा दरवाज़ा लगा दे मेरी रानी, दादी की तबियत कुछ ठीक नहीं लगती ..."..उमा ने दु:खी मन से अपनी बेटी से कहा ..!!!
बहू............ बेटी मेरे पास तो आ ....कराहते हुए सुमित्रा (उमा की सास) बोली हाँ माँ जी आप बोलिए मत मैं अभी काढ़ा बना देती हूँ सारा ज्वर आपके बेटे की तरह
अभी निकल जायेगा ....और फिर आप खिचड़ी खा लेना अभी सही हो जाएँगी ......पर जैसे सुमित्रा की पथराई आँखों में तो चमक वापस आने का नाम ही नहीं ले रही थी ।
उसे बार बार याद आती थी तो वो ज्यादती जो हमेशा उसने अपनी बहु के साथ की ......निस्तेज सी पड़ी सुमित्रा के मन में हजारों सवाल कौंध रहे थे ।
क्यूँ ये बेचारी मेरी सेवा कर रही है, क्या मैं इसके लायक हूँ, अभी परसों की तो बात है जब मैंने उसे बेईज्ज़त किया अपनी पड़ोसन के सामने नीचा दिखाया और वो चुपचाप सुनती रही,
कल ही तो मैंने उसके बनाये हुए खाने में मीन मेख निकलते हुए दोबारा खाना बनवाया .....पिछले महीने ही तो उसे अपनी पुरानी साड़ी पहनने को दी ...और वो कैसे भूल ज़ाऊ
जब स्मृति के जन्म के समय उसे ज़माने भर का ताना मारा ........मेरे बेटा तो कर्तव्यविमुख हो गया और मुझे इस हाल में छोड़ कर चला गया इसका दोष भी इस अभागी के सर मड दिया मैंने ....
कल नवमी पर उसने इतनी मेहनत से सारी कन्याओं को प्रेमपूर्वक जिमाया और फिर तिलक करके 1 का सिक्का दिया ..पता नहीं कहाँ से ....पर में इतनी निष्ठुर कैसे हो गयी की मुझे
केवल उसका मुझे बाद में खाना खिलाना याद आया ..........क्या मैंने सही किया या फिर व्यर्थ ही उस अबला को परेशान किया वो तो बेचारी कभी काली बनी ही नहीं वरना विजयादशमी तो
मेरे घर में कब की बन जाती ...........वैसे बनती तो रोज़ ही है फर्क ये है की रोज़ जीत मेरी ही होती है। ..............नियति का खेल भी देखो आज भी विजयादशमी है बाहर बच्चों का शोर हो रहा है
रावण जलने की तैयारी है .......और शायद एक रावन तो आज यहाँ भी जलेगा ...............
...शीईई-------शिईइ ........तभी कुकर की सीटी ने अनवांछित शोर किया .........शायद खिचड़ी पक चुकी थी .....पर यहाँ तो कुछ और ही पक रहा था .......अरे गुडिया चम्मच हटा कुकर से .....
रसोई में आकर उमा झल्लाई .....और कुकर की सीटी पर कडछी मारी और उसकी आंखें भी जल से भर गयीं दिमाग में कुछ था तो बस सास के साथ बिताये वो कडवे पल ......
आखिर मेरे द्वारा की गयी ये स्वार्थ वश सेवा के लाभ के क्या मैं लायक हूँ अभी परसों की तो बात है जब मेरी सास ने मुझे बेईज्ज़त किया तो मैंने भी पड़ोसन की बहु को खूब खरी खोटी कही अपनी सासु के बारे में .......कल ही तो जब उसने मुझसे दोबारा खाना बनवाया तो मैंने भी उस से बुरा खाना बना कर थमा दिया और मेरी सास को लगा जैसे वो जीत गयी पर सच तो कुछ और ही था .......अभी पिछले महीने ही तो
उन्होंने मुझे उतरन दी अपनी तो मैंने भी क्रोध वश पड़ोसन की काम वाली सरला को दे दी ..............और स्मृति के जन्म के वक़्त से ज्यादा ताने तो मैंने उन्हें उनके बेटे के जाने के बाद मारे बस फर्क ये है कि उन्होंने दिल में नहीं रखा और मैं अपनी काली जुबान पर नहीं लाई ............और कल ही तो मैंने अपनी सासु को अंत में खाना दिया तो जैसे मैं तो अपनी इस जंग की विजेता हो गयी ........क्या मैं सही थी ...क्या किसी को बिना बोले बुरा भला सोचना ज्यादा उचित है या मेरी सास की तरह जो दिल में है वो बोल देना ज्यादा सरल है ......कपटी उम्र भर में रही या वो ??????.......वैसे जीत तो मेरी ही होती है पर क्या यही मेरी सबसे बड़ी हार है ..
मम्मी दादी चिल्ला रही हैं .............जल्दी आओ ......जल्दी आओ ......रसोई से भागी भागी उमा आई हाथ में था पूरी श्रद्धा के साथ बनाया हुआ वो काढ़ा जिसमे उसके पश्चाताप के आंसूं जो अब तक पतझड़ के पल्लवों जैसे विरक्त थे दिखाई पड़ रहे थे .....उसने मांजी का हाथ थामाँ और बड़े प्यार से काढ़ा का कटोरा अधरों पर लगाया ...ये प्यार इतना असीम पहले कभी नहीं जान पड़ा था .......सुमित्रा भी उसी पश्चाताप की अग्नि में जल रही थी जिसमे उमा झुलसी हुई थी ......धीरे धीरे काढ़ा भी ख़त्म हुआ और साँसों की डोर भी टूट रही थी मोहल्ले पड़ोस की औरतें भी इकटठा होने लगी थी ............अब तो जाये बिस्तर से उतार दो जे नाएं बचवे वाली ...........एक बुज़ुर्ग महिला ने अपनी जवान में कहा ...........पर शायद उमा को पूरा विश्वास था कि कोई चमत्कार तो होगा .........सुमित्रा मंद मंद आवाज़ में बोली उमा .......बेटी उमा ....देख रावन जला क्या ????? अभी नही अम्मा ....और तुम कुछ मत बोलो आराम करो ..............माँ अभी ठीक होती हो और तुम्हे खिचड़ी भी तो खानी है न मैने तुम्हारी पसंद की चने की दाल भी मिलायी है उसमे .....बेटी ये हटा दे मेरे नीचे से कितने प्यार से तूने स्मृति के लिए बनायी थी .......गुडिया ओ गुडिया इधर आ मेरे पास देख तू उमा का ख़याल रखना और सुन मेरी चिता को आग भी इसी के हाथों लगने देना ..........शायद मुझे इसके सत्कर्मों से स्वर्ग नसीब हो जाये ....अब उमा कुछ बोलने की हालत में नहीं थी .....बाहर नगर प्रमुख रावण दहन के लिए आ गया था ........और शायद अन्दर भी तो रावण का दहन हो रहा था एक सुमित्रा के मन से और दूसरा उमा के दिल से ..........रावण पर निशाना साधा गया और जोर के पाटाखों की आवाज़ ने सुमित्रा के प्राण को भी हर लिया .........और अंतिम शब्द तो वो नहीं बोल सकी पर उसके हाथों ने कुछ ऐसी आकृति बनायीं जैसे वो माफ़ी मांग रही हो उस सभी के लिए जो उसने अपनी बहू के साथ किया ................पर उमा चाह कर भी उत्तर न दे सकी और एक बार फिर वो सुमित्रा की नज़रों में महान पर अपनी में गिर चुकी थी ................लेकिन इतना पवित्र हृदय उसका आज से पहले कभी नहीं था ....वो रो रही थी पर हर आंसूं उस आज हल्का कर रहा था .....जो आज तक अपनी सास की मौत ही मांगती थी आज वही मन ही मन माफ़ी मांग रही थी ..............इतनी पवित्रता इतनी सच्चाई ....शायद यही थी बुराई पर अच्छाई की जीत .......... और शायद यही था वास्तविक दशहरा ....।
#52
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patidarvishal90
DhakarArun2208
Shilpy.Mayank
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