अदरक वाली चाय

jayasahay108
मिथक
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सुबह से उदास सुशील जब कहीं चैन नहीं पा सका तब सहसा उसे चाय का ख़्याल आया, बस फ़िर क्या था, फटाफट उसने लैपटॉप बंद किया और लंच का वक्त देखते हुए निकल पड़ा।
वैसे तो सुशील पेशे से सॉफ़्वेयर इंजीनियर था पर रिश्तों के मामले में वो ज़रा कच्चा था और थोड़ा अंतर्मुखी भी, बात-बात पर भावुक हो जाना और जज करना, हालांकि एक अच्छी बात यह भी थी कि उसे पता था अपने इस रवैये के बारे में सो वह जब भी ऐसा पाता तो बस चुप रहता और सबसे ज़रा किनारा कर लेता।
अॉफ़िस से निकलते ही सड़क के उस पार एक चाय की दुकान थी, जहाँ सुशील हर रोज़ कम से कम दो से तीन बार तो जाता ही था, आमतौर पर लंच टाईम और शाम को घर लौटते वक्त, कभी-कभी सुबह के वक्त भी दो घूँट लगा आता क्योंकि सुशील चाय का शौक़ीन जो था।
वहाँ जाकर दुकान के आगे लगी बेंच पर सुशील बैठ गया लेकिन आज मूड इतना ख़राब था कि कुछ कहा भी नहीं गया, कल रात की पार्टी में अपनी सहकर्मी निशा के किसी बरताव का बुरा मानकर न जाने उसने क्या-क्या सोच कर खुद को उदास कर लिया था।
दरअसल सुशील अॉफ़िस में नया था और निशा वहाँ पहले से कार्यरत थी और निशा के मिलनसार और हँसमुख स्वभाव की वजह से ही महीने-दो महीने में ही उससे उसकी सबसे पहले और सबसे गाढ़ी मित्रता हो गयी थी, वो मित्रता जो अब प्रेम में बदलने लगी थी। पर कल रात की अॉफ़िस पार्टी में निशा का किसी और सहकर्मी से बात करना सुशील को रास नहीं आया और उसने बस मन बना लिया कि निशा अच्छी नहीं है ।
चाय की दुकान के आगे लगी बेंच पर बैठा सुशील इसी उलझन में था तभी एक आवाज़ आयी, "भैया जी, आज भी अदरक वाली पीयेंगे क्या?"
चाय वाले की आवाज़ को दो बार अनसुना करने के बाद जब तीसरी बार भी वही सवाल आया तो सुशील ने झल्ला कर कहा कि ,"तुमसे किसने कहा कि मुझे अदरक वाली चाय पसंद है, मुझे कोई अदरक वाली नहीं बल्कि मसाला चाय चाहिए।"
इस पर चाय वाले ने कहा कि, "दरअसल आपने आजकल मसाला चाय छोड़कर अदरक वाली ही पीनी शुरू कर दी है न इसीलिए मुझे लगा कि................."
"मुझे लगा...क्या लगा तुम्हें?? हाँ..??"
"भैया जी वो निशा मैडम को अदरक वाली चाय ही पसंद है न इसीलिए..!!!"
"तो उन्हें पसंद है तो मैं क्या करूँ, तुम बना रहे हो या मैं जाऊँ? अब क्या तुम सिर्फ़ उसकी पसंद की चाय ही बनाओगे? तो पहले कह देना था ना, मुझे थोड़ा चलना पड़ता पर मैं नुक्कड़ पर जाकर पी लेता"। यह कहकर सुशील गुस्से से उठा ही था कि तभी निशा उसे ढूँढते हुए वहाँ आ गयी , स्थिति व माहौल के गरमाहट से अंजान निशा ने चहकते हुए कहा कि, "भैया! दो मसाले वाली चाय....! आओ न सुशील बैठते हैं, कल से तुमसे तफ़सील से बात भी नहीं हो पायी है..!"
सुशील किसी तरह से जवाब देने में असमर्थ रहा और कसमसा कर बैठ तो गया पर उसका मन नहीं लग रहा था सो उसने ज़रा सा मुँह फेर लिया।
मन ही मन सोचने लगा कि, "ये औरतें भी बड़ी मौकापरस्त होती हैं, जब चाहा तब बात कर लिया और जब चाहा तब अनदेखा कर दिया, मुझे नहीं करनी इससे कोई भी बात वात, बकती रहे अपने आप में ही, मैं ध्यान ही नहीं देने वाला, हुहहहँ!"
यूँ तो जब भी उस चाय के अड्डे पर आना होता तो बातें करते-करते कब समय निकल जाता पता ही नहीं चलता और इसीलिए उस तरफ़ कभी नज़र गयी ही नहीं जिधर आज निशा को अनदेखा करते हुए सुशील नज़रें टिकाये बैठा था।
सुशील और कहीं नहीं बल्कि चूल्हे पर तेज़ आँच पर रखी चाय को एकटक देख रहा था जैसे चाय की उबाल में ही अपनी उदासी भरे सवालों के जवाब ढूँढ रहा हो, और ज्यों ही चाय में उबाल आया बिना देर करते हुए सुशील कह बैठा कि, "ज़रा जल्दी बनाओ यार, देर हो रही है, मुझे यहाँ हमेशा नहीं बैठे रहना, लंच का टाईम है, समझे?" यह कहते हुए , अपनी ऊब का प्रदर्शन करते हुए और निशा से जी चुराते हुए सुशील वहाँ पर जाकर खड़ा हो गया,
चाय वाले ने कहा कि," भैया, अभी कहाँ, अभी तो बस उबाल आया है, आप थोड़ा इंतज़ार करो, रंग लाने के लिए धीमी आँच पर पकाना पड़ता है, तब जाकर बनती है कड़क चाय।"
चाय वाले की यह बात भले ही किसी और संदर्भ में कही गयी हो पर सुशील की उदासी और क्षोभ को दूर करने के लिए काफ़ी थी।
वह समझ चुका था कि, निशा के लिए उसका गुस्सा भी बेबुनियाद है, अभी दिन ही कितने हुए हैं एक दूसरे को अच्छे से जानते हुए, ऐसे तो निशा ने हमेशा ही मेरा साथ दिया है, यहाँ तक कि मेरी नादानी भरे गुस्से और इस बेरूखी भरे बरताव से अंजान इस भोली ने तो चाय भी मेरी पसंद की ही मँगवाई है, अब इससे मैं क्या शिकायत करूँ भला! इसने मुझसे इतनी नादानी की उम्मीद थोड़ी न की होगी कभी। यह सोच कर सुशील मन ही मन शर्मिंदा होकर झमा गया। "हे भगवान!! मैं भी कितना बुरा हूँ न, निशा को ग़लत समझ लिया बिना उससे बात किये ही अपनी राय बना ली, मुझे इस रिश्ते को वक्त देना चाहिए, तभी किसी सही ग़लत पर विचार करना चाहिए।"

"उबाल आते ही रंग आने की उम्मीद जग जाती है जो सब्र की इंतेहा होती है पर रंग लाने के लिए धीमी आँच पर रखना पड़ता है, जीवन में कुछ रिश्ते भी चाय की तरह ही सब्र की धीमी आँच पर जब पकते हैं तभी निखरते हैं..!"

दोंनो ने साथ बैठकर चाय पी और हाथ पकड़ कर अॉफ़िस की ओर चल दिए...!!

लेखिका- ©जया सहाय


||समाप्त||

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