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Subrat SaurabhAuthor of Kuch Woh PalBrahmachari Prakarsha Prakash has been in the field of writing for the last 12 years. It is his natural inclination to educate and empower others. He considers himself very fortunate to be a disciple of His Holiness Śrīmajjagadguru Śaṅkarācārya of Shri Govardhan Math Puri, Svāmī Niścalānanda Sarasvatījī Mahārāj. Brahmachari Prakash feels that true success lies in directing one’s actions towards one’s guru. He has involved himself in propagating the teachings of Vedic scriptures through various publications. ब्रह्मचारी प्रकाश प्रकाRead More...
Brahmachari Prakarsha Prakash has been in the field of writing for the last 12 years. It is his natural inclination to educate and empower others. He considers himself very fortunate to be a disciple of His Holiness Śrīmajjagadguru Śaṅkarācārya of Shri Govardhan Math Puri, Svāmī Niścalānanda Sarasvatījī Mahārāj. Brahmachari Prakash feels that true success lies in directing one’s actions towards one’s guru. He has involved himself in propagating the teachings of Vedic scriptures through various publications.
ब्रह्मचारी प्रकाश प्रकाश पिछले कुछ वर्षों से लेखन के क्षेत्र में हैं। दूसरों को शिक्षित और सशक्त बनाना उनका स्वाभाविक झुकाव है। वे श्री गोवर्धन मठ पुरी के परमपावन श्रीमज्जगद्गुरु शंकराचार्य, स्वामी निश्चलानंद सरस्वतीजी महाराज के शिष्य होने के कारण स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानते हैं। ब्रह्मचारी प्रकाश का मानना है कि सच्ची सफलता अपने कार्यों को अपने गुरु की ओर निर्देशित करने में निहित है। उन्होंने विभिन्न प्रकाशनों के माध्यम से वैदिक शास्त्रों की शिक्षाओं के प्रचार में खुद को शामिल किया है।
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दर्शन शब्द का शब्दार्थ केवल देखना या सामान्य देखना ही नहीं है। दर्शन-शास्त्र हमें प्रमाण और तर्क के सहारे अन्धकार में ज्योति प्रदान करके हमारा मार्ग-दर्शन करने में समर्थ होता ह
दर्शन शब्द का शब्दार्थ केवल देखना या सामान्य देखना ही नहीं है। दर्शन-शास्त्र हमें प्रमाण और तर्क के सहारे अन्धकार में ज्योति प्रदान करके हमारा मार्ग-दर्शन करने में समर्थ होता है। पाणिनीय व्याकरण के अनुसार 'दर्शन' शब्द, 'दृशिर् प्रेक्षणे' धातु से ल्युट् प्रत्यय करने से निष्पन्न होता है। अतएव दर्शन शब्द का अर्थ दृष्टि या देखना, ‘जिसके द्वारा देखा जाय’ या ‘जिसमें देखा जाय’ होगा।
अथातो धर्मजिज्ञासा ( पूर्वमीमांसा)
अथातो ब्रह्मजिज्ञासा। ( वेदान्तसूत्र )
अथ योगानुशासनम्। ( योगसूत्र )
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः। ( सांख्यसूत्र )
अथातो धर्मं व्याख्यास्यामः। ( वैशेषिकसूत्र )
प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानाम्तत्त्वज्ञानात्निःश्रेयसाधिगमः । ( न्यायसूत्र )
अष्टाध्यायी छह वेदांगों में मुख्य माना जाता है।अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं
अष्टाध्यायी छह वेदांगों में मुख्य माना जाता है।अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं वाक्य में आए हुए क्रिया और संज्ञा शब्दों के पारस्परिक संबंध के नियामक प्रकरण भी हैं, जैसे क्रिया के लिए आत्मनेपद-परस्मैपद-प्रकरण, एवं संज्ञाओं के लिए विभक्ति, समास आदि। तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में सब प्रकार के प्रत्ययों का विधान है। तीसरे अध्याय में धातुओं में प्रत्यय लगाकर कृदंत शब्दों का निर्वचन है और चौथे तथा पाँचवे अध्यायों में संज्ञा शब्दों में प्रत्यय जोड़कर बने नए संज्ञा शब्दों का विस्तृत निर्वचन बताया गया है। छठे, सातवें और आठवें अध्यायों में उन परिवर्तनों का उल्लेख है जो शब्द के अक्षरों में होते हैं। ये परिवर्तन या तो मूल शब्द में जुड़नेवाले प्रत्ययों के कारण या संधि के कारण होते हैं। द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घ आदि के विधायक सूत्र छठे अध्याय में आए हैं। छठे अध्याय के चौथे पद से सातवें अध्याय के अंत तक अंगाधिकार नामक एक विशिष्ट प्रकरण है जिसमें उन परिवर्तनों का वर्णन है जो प्रत्यय के कारण मूल शब्दों में या मूल शब्द के कारण प्रत्यय में होते हैं। ये परिवर्तन भी दीर्घ, ह्रस्व, लोप, आगम, आदेश, गुण, वृद्धि आदि के विधान के रूप में ही देखे जाते हैं। अष्टम अध्याय में, वाक्यगत शब्दों के द्वित्वविधान, प्लुतविधान एवं षत्व और णत्वविधान का विशेषत: उपदेश है।
A rare and much less known text Shrutisara Samuddharanam is a composition by Shri Totakacharya, one of the four disciples of Shri Bhagavatpada Adi Sankara . Though most of the Prakarana Granthas are on the same subject of oneness of jiva and brahman, ideas basic to Advaita Vedanta, this work is unique in certain ways. Firstly, it is composed in a meter that is named after the AchArya as Totaka meter. These verses are melodious when sung with their breath
A rare and much less known text Shrutisara Samuddharanam is a composition by Shri Totakacharya, one of the four disciples of Shri Bhagavatpada Adi Sankara . Though most of the Prakarana Granthas are on the same subject of oneness of jiva and brahman, ideas basic to Advaita Vedanta, this work is unique in certain ways. Firstly, it is composed in a meter that is named after the AchArya as Totaka meter. These verses are melodious when sung with their breath-taking rhythm, they remind us of Sri Sankara’s famous bhaja govinda stotram. He elucidated the nature of Brahman as one and non-dual, real, knowledge and bliss through a number of scriptural texts. Secondly he does not refer to the Maya concept that is important to Advaita Vedanta nor discuss the tenability of the reflection theory (bimba pratibimba vada) nor the limitation theory (avachheda vada ). The reasons are the possibility of his explaining the oneness of inner self (jIva ) and supreme self ( brahman ) of Advaita Vedanta without resorting to those concepts.
अष्टाध्यायी छह वेदांगों में मुख्य माना जाता है।अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं
अष्टाध्यायी छह वेदांगों में मुख्य माना जाता है।अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं वाक्य में आए हुए क्रिया और संज्ञा शब्दों के पारस्परिक संबंध के नियामक प्रकरण भी हैं, जैसे क्रिया के लिए आत्मनेपद-परस्मैपद-प्रकरण, एवं संज्ञाओं के लिए विभक्ति, समास आदि। तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में सब प्रकार के प्रत्ययों का विधान है। तीसरे अध्याय में धातुओं में प्रत्यय लगाकर कृदंत शब्दों का निर्वचन है और चौथे तथा पाँचवे अध्यायों में संज्ञा शब्दों में प्रत्यय जोड़कर बने नए संज्ञा शब्दों का विस्तृत निर्वचन बताया गया है। छठे, सातवें और आठवें अध्यायों में उन परिवर्तनों का उल्लेख है जो शब्द के अक्षरों में होते हैं। ये परिवर्तन या तो मूल शब्द में जुड़नेवाले प्रत्ययों के कारण या संधि के कारण होते हैं। द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घ आदि के विधायक सूत्र छठे अध्याय में आए हैं। छठे अध्याय के चौथे पद से सातवें अध्याय के अंत तक अंगाधिकार नामक एक विशिष्ट प्रकरण है जिसमें उन परिवर्तनों का वर्णन है जो प्रत्यय के कारण मूल शब्दों में या मूल शब्द के कारण प्रत्यय में होते हैं। ये परिवर्तन भी दीर्घ, ह्रस्व, लोप, आगम, आदेश, गुण, वृद्धि आदि के विधान के रूप में ही देखे जाते हैं। अष्टम अध्याय में, वाक्यगत शब्दों के द्वित्वविधान, प्लुतविधान एवं षत्व और णत्वविधान का विशेषत: उपदेश है।
समास शब्द-रचना की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अर्थ की दृष्टि से परस्पर भिन्न तथा स्वतंत्र अर्थ रखने वाले दो या दो से अधिक शब्द मिलकर किसी अन्य स्वतंत्र शब्द की रचना करते हैं।
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समास शब्द-रचना की ऐसी प्रक्रिया है जिसमें अर्थ की दृष्टि से परस्पर भिन्न तथा स्वतंत्र अर्थ रखने वाले दो या दो से अधिक शब्द मिलकर किसी अन्य स्वतंत्र शब्द की रचना करते हैं।
समास का तात्पर्य होता है – संक्षिप्तीकरण। इसका शाब्दिक अर्थ होता है छोटा रूप। अथार्त जब दो या दो से अधिक शब्दों से मिलकर जो नया और छोटा शब्द बनता है उस शब्द को समास कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जहाँ पर कम-से-कम शब्दों में अधिक से अधिक अर्थ को प्रकट किया जाए वह समास कहलाता है।
Ashtadhyay is considered to be the main of the six Vedangas. The Ashtadhyay has eight chapters and each chapter has four padas. The first and second chapters contain formulas on nouns and definitions and also regulatory cases of the interrelationship of verbs and noun words in the sentence, such as atmanepada-parasmapada cases for verbs, and inflection, compounds, etc. for nouns. The third, fourth and fifth chapters prescribe all kinds of suffixes. The third c
Ashtadhyay is considered to be the main of the six Vedangas. The Ashtadhyay has eight chapters and each chapter has four padas. The first and second chapters contain formulas on nouns and definitions and also regulatory cases of the interrelationship of verbs and noun words in the sentence, such as atmanepada-parasmapada cases for verbs, and inflection, compounds, etc. for nouns. The third, fourth and fifth chapters prescribe all kinds of suffixes. The third chapter deals with the definition of verbs by adding suffixes to nouns and the fourth and fifth chapters deal with the detailed definition of new noun words formed by adding suffixes to nouns. The sixth, seventh and eighth chapters deal with the changes which take place in the letters of the word. These changes are either due to suffixes added to the root word or due to conjugation. The constitutive formulas of duality, conjugation, conjunction, vowel, prefix, deletion, dirgha etc. are given in the sixth chapter. From the fourth verse of the sixth chapter to the end of the seventh chapter there is a special chapter called Angadhikara which describes the changes which occur in the root words due to the suffix or in the suffix due to the root word. These changes are also seen as legislation of dirgha, hrasva, lopa, agama, adesha, guna, vruddhi, etc. In the eighth chapter, the diphthongs, pluralization and shattva and natva of sentential words are specially instructed.
अष्टाध्यायी छह वेदांगों में मुख्य माना जाता है।अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं
अष्टाध्यायी छह वेदांगों में मुख्य माना जाता है।अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं वाक्य में आए हुए क्रिया और संज्ञा शब्दों के पारस्परिक संबंध के नियामक प्रकरण भी हैं, जैसे क्रिया के लिए आत्मनेपद-परस्मैपद-प्रकरण, एवं संज्ञाओं के लिए विभक्ति, समास आदि। तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में सब प्रकार के प्रत्ययों का विधान है। तीसरे अध्याय में धातुओं में प्रत्यय लगाकर कृदंत शब्दों का निर्वचन है और चौथे तथा पाँचवे अध्यायों में संज्ञा शब्दों में प्रत्यय जोड़कर बने नए संज्ञा शब्दों का विस्तृत निर्वचन बताया गया है। छठे, सातवें और आठवें अध्यायों में उन परिवर्तनों का उल्लेख है जो शब्द के अक्षरों में होते हैं। ये परिवर्तन या तो मूल शब्द में जुड़नेवाले प्रत्ययों के कारण या संधि के कारण होते हैं। द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घ आदि के विधायक सूत्र छठे अध्याय में आए हैं। छठे अध्याय के चौथे पद से सातवें अध्याय के अंत तक अंगाधिकार नामक एक विशिष्ट प्रकरण है जिसमें उन परिवर्तनों का वर्णन है जो प्रत्यय के कारण मूल शब्दों में या मूल शब्द के कारण प्रत्यय में होते हैं। ये परिवर्तन भी दीर्घ, ह्रस्व, लोप, आगम, आदेश, गुण, वृद्धि आदि के विधान के रूप में ही देखे जाते हैं। अष्टम अध्याय में, वाक्यगत शब्दों के द्वित्वविधान, प्लुतविधान एवं षत्व और णत्वविधान का विशेषत: उपदेश है।
स्वामी निरंजन देव तीर्थ, गोवर्धन मठ के १४४ वें शंकराचार्य थे। वे औदिच्य कुल के ब्राह्मण थे तथा उनका नाम श्री चंद्रशेखर दवे था। श्री चंद्रशेखर दवे ने वाराणसी आदि क्षेत्रों में
स्वामी निरंजन देव तीर्थ, गोवर्धन मठ के १४४ वें शंकराचार्य थे। वे औदिच्य कुल के ब्राह्मण थे तथा उनका नाम श्री चंद्रशेखर दवे था। श्री चंद्रशेखर दवे ने वाराणसी आदि क्षेत्रों में विद्याध्ययन किया । वे व्याकरण के मूर्धन्य विद्वान् एवं चिकित्सा शास्त्र के मर्मज्ञ मनीषी थे । चरक संहिता इत्यादि आयुर्वेद के ग्रंथ को पढ़ाने में भी दक्ष थे । उन्होंने विद्यार्थी जीवन में धर्म सम्राट् स्वामी श्री करपात्री जी से वेदांत के मूर्धन्य ग्रंथ खंडन खंड खाद्य का अध्ययन किया था । उन्होंने धर्मशास्त्र का विधिवत् अध्ययन और अनुशीलन किया था । दर्शन शास्त्र में भी उनकी अद्भुत गति थी । साथ ही साथ गुजराती, राजस्थानी, हिंदी, संस्कृत , भोजपूरी और इंग्लिश में वे अपने मनोभावों को दक्षता पूर्वक व्यक्त करने में समर्थ थे ।
वैशेषिक, भारतीय दर्शनों में से एक दर्शन है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं। यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन
वैशेषिक, भारतीय दर्शनों में से एक दर्शन है। इसके मूल प्रवर्तक ऋषि कणाद हैं। यह दर्शन न्याय दर्शन से बहुत साम्य रखता है किन्तु वास्तव में यह एक स्वतंत्र भौतिक विज्ञानवादी दर्शन है। इस प्रकार के आत्मदर्शन के विचारों का सबसे पहले महर्षि कणाद ने सूत्र रूप में (वैशेषिकसूत्र में) लिखा। यह दर्शन "औलूक्य", "काणाद", या "पाशुपत" दर्शन के नामों से प्रसिद्ध है। इसके सूत्रों का आरम्भ "अथातो धर्मजिज्ञासा" से होता है। इसके बाद दूसरा सूत्र है- "यतोऽभ्युदयनिःश्रेयसिद्धिः स धर्मः" अर्थात् जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस् की सिद्धि होती है, वह धर्म है। इसके लिये समस्त अर्थतत्त्व को छः ' पदार्थों ' (द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय) में विभाजित कर उन्हीं का मुख्य रूप से उपपादन करता है। वैशेषिक दर्शन और पाणिनीय व्याकरण को सभी शास्त्रों का उपकारक माना गया है |
अष्टाध्यायी छह वेदांगों में मुख्य माना जाता है।अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं
अष्टाध्यायी छह वेदांगों में मुख्य माना जाता है।अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं वाक्य में आए हुए क्रिया और संज्ञा शब्दों के पारस्परिक संबंध के नियामक प्रकरण भी हैं, जैसे क्रिया के लिए आत्मनेपद-परस्मैपद-प्रकरण, एवं संज्ञाओं के लिए विभक्ति, समास आदि। तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में सब प्रकार के प्रत्ययों का विधान है। तीसरे अध्याय में धातुओं में प्रत्यय लगाकर कृदंत शब्दों का निर्वचन है और चौथे तथा पाँचवे अध्यायों में संज्ञा शब्दों में प्रत्यय जोड़कर बने नए संज्ञा शब्दों का विस्तृत निर्वचन बताया गया है। छठे, सातवें और आठवें अध्यायों में उन परिवर्तनों का उल्लेख है जो शब्द के अक्षरों में होते हैं। ये परिवर्तन या तो मूल शब्द में जुड़नेवाले प्रत्ययों के कारण या संधि के कारण होते हैं। द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घ आदि के विधायक सूत्र छठे अध्याय में आए हैं। छठे अध्याय के चौथे पद से सातवें अध्याय के अंत तक अंगाधिकार नामक एक विशिष्ट प्रकरण है जिसमें उन परिवर्तनों का वर्णन है जो प्रत्यय के कारण मूल शब्दों में या मूल शब्द के कारण प्रत्यय में होते हैं। ये परिवर्तन भी दीर्घ, ह्रस्व, लोप, आगम, आदेश, गुण, वृद्धि आदि के विधान के रूप में ही देखे जाते हैं। अष्टम अध्याय में, वाक्यगत शब्दों के द्वित्वविधान, प्लुतविधान एवं षत्व और णत्वविधान का विशेषत: उपदेश है।
सांख्य दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय चेतन और अचेतन का विवेक कराना है। 'पुरुष' पद चेतन का प्रतीक है। संसार में अनुभूयमान त्रिगुणात्मक अचेतमतत्त्व' प्रकृति का अंश है। इससे सर्वथ
सांख्य दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय चेतन और अचेतन का विवेक कराना है। 'पुरुष' पद चेतन का प्रतीक है। संसार में अनुभूयमान त्रिगुणात्मक अचेतमतत्त्व' प्रकृति का अंश है। इससे सर्वथा विलक्षण तत्त्व जो चेतन है, उसका अनुभव 'प्रत्येक व्यक्ति स्वतः अपने रूप में करता है। सांख्य का 'पुरुष' पद सर्वत्र चेतनमात्र का बोध कराता है । उसी को 'आत्मा' भी कहते हैं, यह शुद्धस्वभाव है। शुद्ध का अभिप्राय है – 'आत्मा' में किसी प्रकार के विकार का न होना । प्रकृति अशुद्ध है, क्योंकि वह परिणामिनी है। यद्यपि आत्मा 'प्रकृति' से प्रभावित होता है, 'सुख दुःख आदि' का अनुभव करता है, 'राग-द्वेष-काम-विचिकित्सा आदि के कारण व्याकुल होता है, 'क्षुधा तृष्णा आदि' इसको बराबर बेचैन करती है यहाँ तक कि 'प्रकृति' के प्रभाव में 'चेतन होता हुआ' भी वह अज्ञानी कह लाता है। फिर भी इन सब प्रकार की अवस्थाओं में आत्मा के 'वास्तविक स्वरूप' में कोई अन्तर नहीं आता । आत्मा में किसी प्रकार का विकार न आना ही उसकी शुद्धता है। यह स्वरूप उसका सदा एक समान बना. रहता है, इसकारण उसे शुद्धस्वभाव माना गया है।
न्याय दर्शन भारत के छः वैदिक दर्शनों में एक दर्शन है। इसके प्रवर्तक ऋषि अक्षपाद गौतम हैं जिनका न्यायसूत्र इस दर्शन का सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जिन साधनों से हमें ज्
न्याय दर्शन भारत के छः वैदिक दर्शनों में एक दर्शन है। इसके प्रवर्तक ऋषि अक्षपाद गौतम हैं जिनका न्यायसूत्र इस दर्शन का सबसे प्राचीन एवं प्रसिद्ध ग्रन्थ है। जिन साधनों से हमें ज्ञेय तत्त्वों का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हीं साधनों को ‘न्याय’ की संज्ञा दी गई है।
योगसूत्र ग्रंथ महर्षि पतंजलि द्वारा रचित है। यह ग्रंथ सूत्रों के रूप में लिखा गया है। सूत्र-शैली भारत की प्राचीन दुर्लभ शैली है जिसमें विषय को बहुत संक्षिप्त शब्दों में प्रस्त
योगसूत्र ग्रंथ महर्षि पतंजलि द्वारा रचित है। यह ग्रंथ सूत्रों के रूप में लिखा गया है। सूत्र-शैली भारत की प्राचीन दुर्लभ शैली है जिसमें विषय को बहुत संक्षिप्त शब्दों में प्रस्तुत किया जाता है। यह चार पादो में विभाजित है जिसमें 196 सूत्र निबद्ध है। इस ग्रंथ में महर्षि पतंजलि ने यथार्थ रूप में योग के आवश्यक आदर्शों और सिद्धांतों को प्रस्तुत किया है। पतंजलि का “योगसूत्र“, योग विषय पर एकमात्र सबसे प्रामाणिक पुस्तक के रूप में स्थापित है। योगसूत्र ग्रंथ के चार पाद हैंः समाधि पाद, साधन पाद, विभूति पाद, और कैवल्य पाद।
सिद्धान्तकौमुदी संस्कृत व्याकरण का ग्रन्थ है जिसके रचयिता भट्टोजि दीक्षित हैं। इसका पूरा नाम "वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी" है। भट्टोजि दीक्षित ने प्रक्रियाकौमुदी के आधार पर सिद
सिद्धान्तकौमुदी संस्कृत व्याकरण का ग्रन्थ है जिसके रचयिता भट्टोजि दीक्षित हैं। इसका पूरा नाम "वैयाकरणसिद्धान्तकौमुदी" है। भट्टोजि दीक्षित ने प्रक्रियाकौमुदी के आधार पर सिद्धांत कौमुदी की रचना की।
अष्टाध्यायी छह वेदांगों में मुख्य माना जाता है।अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं
अष्टाध्यायी छह वेदांगों में मुख्य माना जाता है।अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं। पहले दूसरे अध्यायों में संज्ञा और परिभाषा संबंधी सूत्र हैं एवं वाक्य में आए हुए क्रिया और संज्ञा शब्दों के पारस्परिक संबंध के नियामक प्रकरण भी हैं, जैसे क्रिया के लिए आत्मनेपद-परस्मैपद-प्रकरण, एवं संज्ञाओं के लिए विभक्ति, समास आदि। तीसरे, चौथे और पाँचवें अध्यायों में सब प्रकार के प्रत्ययों का विधान है। तीसरे अध्याय में धातुओं में प्रत्यय लगाकर कृदंत शब्दों का निर्वचन है और चौथे तथा पाँचवे अध्यायों में संज्ञा शब्दों में प्रत्यय जोड़कर बने नए संज्ञा शब्दों का विस्तृत निर्वचन बताया गया है। छठे, सातवें और आठवें अध्यायों में उन परिवर्तनों का उल्लेख है जो शब्द के अक्षरों में होते हैं। ये परिवर्तन या तो मूल शब्द में जुड़नेवाले प्रत्ययों के कारण या संधि के कारण होते हैं। द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घ आदि के विधायक सूत्र छठे अध्याय में आए हैं। छठे अध्याय के चौथे पद से सातवें अध्याय के अंत तक अंगाधिकार नामक एक विशिष्ट प्रकरण है जिसमें उन परिवर्तनों का वर्णन है जो प्रत्यय के कारण मूल शब्दों में या मूल शब्द के कारण प्रत्यय में होते हैं। ये परिवर्तन भी दीर्घ, ह्रस्व, लोप, आगम, आदेश, गुण, वृद्धि आदि के विधान के रूप में ही देखे जाते हैं। अष्टम अध्याय में, वाक्यगत शब्दों के द्वित्वविधान, प्लुतविधान एवं षत्व और णत्वविधान का विशेषत: उपदेश है।
गीतगोविन्द जयदेव की काव्य रचना है। गीतगोविन्द में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की श्रीराधा के लिए उत्कंठा,
गीतगोविन्द जयदेव की काव्य रचना है। गीतगोविन्द में श्रीकृष्ण की गोपिकाओं के साथ रासलीला, राधाविषाद वर्णन, कृष्ण के लिए व्याकुलता, उपालम्भ वचन, कृष्ण की श्रीराधा के लिए उत्कंठा, राधा की सखी द्वारा राधा के विरह संताप का वर्णन है।
Paniniya Ashtadhyayi is not only about the general and Vedic words of Sanskrit grammar but also gives precise knowledge of Sociology (Anthropology), History (Purana), Politics, and Geography. Along with this, it also analyzes the ancient Indian cultural, social, political, and geographical conditions.
Paniniya Ashtadhyayi is not only about the general and Vedic words of Sanskrit grammar but also gives precise knowledge of Sociology (Anthropology), History (Purana), Politics, and Geography. Along with this, it also analyzes the ancient Indian cultural, social, political, and geographical conditions.
मीमांसा या पूर्वमीमांसा दर्शन हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है जिसमें वेद के यज्ञपरक वचनों की व्याख्या बड़े विचार के साथ की गयी है। इसके प्रणेता जैमिनी हैं। मीमांसा दर्शन मे
मीमांसा या पूर्वमीमांसा दर्शन हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है जिसमें वेद के यज्ञपरक वचनों की व्याख्या बड़े विचार के साथ की गयी है। इसके प्रणेता जैमिनी हैं। मीमांसा दर्शन में "धर्म क्या है" इस विषय पर मीमांसा की गई है । इसके अनुसार "चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः" अर्थात् वेद-वाक्य से लक्षित अर्थ, धर्म है । वेद ने जिन कर्मों को करने के लिये कहा है, उनको करना और जिनको करने से मना किया है, उनको न करना "धर्म" है। श्रौतसूत्र आदि कर्मकाण्ड के ग्रन्थों के वाक्यों को लेकर मीमांसा में पर्याप्त मात्रा में कर्म की मीमांसा की गई है
उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’ या 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)।यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से
उपनिषद् शब्द का साधारण अर्थ है - ‘समीप उपवेशन’ या 'समीप बैठना (ब्रह्म विद्या की प्राप्ति के लिए शिष्य का गुरु के पास बैठना)।यह शब्द ‘उप’, ‘नि’ उपसर्ग तथा, ‘सद्’ धातु से निष्पन्न हुआ है। सद् धातु के तीन अर्थ हैं : विशरण-नाश होना; गति-पाना या जानना तथा अवसादन-शिथिल होना। उपनिषद् ही समस्त भारतीय दर्शनों के मूल स्रोत हैं, चाहे वो वेदान्त हो या सांख्य। उपनिषदों को स्वयं भी 'वेदान्त' कहा गया है।
कालक्रमसे विलुप्त वैदिक ज्ञान-विज्ञानको तपोबल तथा समाधिसिद्ध प्रज्ञाके अमोघ प्रभावसे प्रकट करनेवाले तथा विकृत ज्ञान-विज्ञानको परिस्कृत करनेवाले एवम् अराजकतत्त्वोंका दमन
कालक्रमसे विलुप्त वैदिक ज्ञान-विज्ञानको तपोबल तथा समाधिसिद्ध प्रज्ञाके अमोघ प्रभावसे प्रकट करनेवाले तथा विकृत ज्ञान-विज्ञानको परिस्कृत करनेवाले एवम् अराजकतत्त्वोंका दमनकर धर्मनियन्त्रित - पक्षपातविहीन शोषणविनिर्मुक्त सर्वहितप्रद सनातन शासनतन्त्रकी स्थापना करनेवाले अर्थात् व्यासपीठ और शासनतन्त्रका शोधन करनेवाले युगावतार तथा युगपुरुष मान्य हैं ।
(श्रीगोवर्द्धनमठ-पुरीपीठाधीश्वर-श्रीमज्जगद्गुरू-शङ्कराचार्य स्वामी निश्चलानन्दसरस्वती )
आद्यशंङ्कराचार्य और उनके द्वारा स्थापित गोवर्द्धनमठ पुरीके वर्तमान पीठाधीश्वर श्रीमज्जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामी निश्चलानन्दसरस्वती जी के संक्षिप्त जीवन परिचय एवं पूर्वाम्नाय - श्रीगोवर्द्धनमठका संक्षिप्त परिचय एवं पीठपरिषद् के अन्तर्गत गतिविधियों एवं सेवा-प्रकल्प का परिचय जन-मानसको सुलभ करानेकी की भावनासे श्रीहरि-गुरूकी प्रेरणासे एक लघु-पुस्तिका में सकंलन करने का प्रयास किया है ।
श्रीशंकरानन्द कृत ईशावास्य दीपिका -
ईशोपनिषद् शुक्ल यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत उपनिषद है। प्रमुख् दश उपनिषदों में यह उपनिषद् , अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमे
श्रीशंकरानन्द कृत ईशावास्य दीपिका -
ईशोपनिषद् शुक्ल यजुर्वेदीय शाखा के अन्तर्गत उपनिषद है। प्रमुख् दश उपनिषदों में यह उपनिषद् , अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें मात्र १८ मन्त्र हैं । इसमें कोई कथा-कहानी नहीं है, केवल आत्म वर्णन है। इस उपनिषद् के पहले मंत्र ‘‘ईशावास्यमिदंसर्वंयत्किंच जगत्यां-जगत…’’ से लेकर अठारहवें मंत्र ‘‘अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विध्वानि देव वयुनानि विद्वान्…’’ तक ज्ञान, उपासना, कर्म का रहस्य वर्णित है।
तर्कसंग्रह न्याय एवं वैशेषिक दोनो दर्शनों को समाहित करने वाला ग्रंथ है। इसके रचयिता अन्नम्भट्ट हैं।
तर्कसंग्रह के अध्ययन से न्याय एवं वैशेषिक के सभी मूल सिद्धान्तों का ज्
तर्कसंग्रह न्याय एवं वैशेषिक दोनो दर्शनों को समाहित करने वाला ग्रंथ है। इसके रचयिता अन्नम्भट्ट हैं।
तर्कसंग्रह के अध्ययन से न्याय एवं वैशेषिक के सभी मूल सिद्धान्तों का ज्ञान मिल जाता है। इस ग्रन्थ में 'पदार्थों' के विषय में जो कुछ है वह पूर्णतः वैशेषिक के अनुसार है जबकि 'प्रमाण' के विषय में जो कुछ है वह पूर्णतः न्याय के अनुसार है। अर्थात् पदार्थों के लिये 'वैशेषिक मत' को स्वीकार किया गया है तथा प्रमाण के लिये 'न्याय मत' को। इस प्रकार इस ग्रन्थ के माध्यम से न्याय और वैशेषिक मत को एक में मिलाया गया है।
अर्थसंग्रह पूर्वमीमांसा का ग्रंथ है, और वह भी कर्मकाण्डपरक। अव्युत्पन्न बालकों का जैमिनिशास्त्र में प्रवेश हो सके, इसलिये अर्थसंग्रह नामक ग्रंथ की रचना हुई है। निश्चय ही अर
अर्थसंग्रह पूर्वमीमांसा का ग्रंथ है, और वह भी कर्मकाण्डपरक। अव्युत्पन्न बालकों का जैमिनिशास्त्र में प्रवेश हो सके, इसलिये अर्थसंग्रह नामक ग्रंथ की रचना हुई है। निश्चय ही अर्थसंग्रह की लोकप्रियता का मुख्यकारण उसकी सरलभाषा् एवं शैली है। जैमिनि के सिद्धान्तों में प्रवेश इस ग्रंथ के अध्ययन के विना संभव नहीं है, ऐसा सभी विद्वानों का विचार है। इस लघुकाय ग्रंथ में जैमिनि प्रणीत मीमांसा दर्शन के मुख्य
प्रतिपाद्य विषयों का निरूपण अत्यन्त सारगर्भित एवं सुबोध शैली में होने से इसका निश्चय ही मीमांसा दर्शन के प्रकरण ग्रंथों में विशिष्ट स्थान है।
व्याकरण के समस्त ग्रन्थों में अष्टाध्यायी का मूर्धन्य स्थान है। इसीके कारण पाणिनि जी की कीर्तिपताका अद्यावधि फहरा रही है। इस अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और एक-एक अध्याय में
व्याकरण के समस्त ग्रन्थों में अष्टाध्यायी का मूर्धन्य स्थान है। इसीके कारण पाणिनि जी की कीर्तिपताका अद्यावधि फहरा रही है। इस अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और एक-एक अध्याय में चार-चार पाद हैं।
कुल मिलाकर बत्तीस पाद होते हैं। अष्टाध्यायी में लगभग ३९९३ सूत्र हैं। अत्यल्प सूत्र में अत्यधिक अर्थों को भर देना पाणिनि और उनकी प्रतिभा का अलौकिक चमत्कार है।
यही छोटा सूत्र स्वल्पाकार को छोड़कर बाद में इतना विराट् रूपधारण कर लेता है कि जिसमें समस्त संस्कृत वाङ्मय ओतप्रोत दिखाई देने लगते हैं। पाणिनि जी की प्रखर प्रतिभा प्रत्येक सूत्र से मुखरित होकर पाठकों को अष्टाध्यायी जैसा ग्रन्थ रटने की शिक्षा दे रही है।
पाणिनीय अष्टाध्यायी केवल संस्कृत व्याकरण के लौकिक एवं वैदिक पदों की सिद्धिमात्र ही नहीं करती, अपितु इसके अध्ययन से समाजशास्त्र (मानवशास्त्र), इतिहास (पुराण), राजनीति एवं भूगोल
पाणिनीय अष्टाध्यायी केवल संस्कृत व्याकरण के लौकिक एवं वैदिक पदों की सिद्धिमात्र ही नहीं करती, अपितु इसके अध्ययन से समाजशास्त्र (मानवशास्त्र), इतिहास (पुराण), राजनीति एवं भूगोल
आदि का भी परिनिष्ठित ज्ञान प्रदान करती है। इसके साथ ही लगभग चार हजार सूत्रों के माध्यम से प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक और भौगोलिक परिस्थितियों का विश्लेषण भी करती है।
पाणिनीय अष्टाध्यायी केवल संस्कृत व्याकरण के लौकिक एवं वैदिक पदों की सिद्धिमात्र ही नहीं करती, अपितु इसके अध्ययन से समाजशास्त्र (मानवशास्त्र), इतिहास (पुराण), राजनीति एवं भूगोल
पाणिनीय अष्टाध्यायी केवल संस्कृत व्याकरण के लौकिक एवं वैदिक पदों की सिद्धिमात्र ही नहीं करती, अपितु इसके अध्ययन से समाजशास्त्र (मानवशास्त्र), इतिहास (पुराण), राजनीति एवं भूगोल
आदि का भी परिनिष्ठित ज्ञान प्रदान करती है। इसके साथ ही लगभग चार हजार सूत्रों के माध्यम से प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक और भौगोलिक परिस्थितियों का विश्लेषण भी करती है।
महर्षि पाणिनि द्वारा प्रणीत व्याकरण शास्त्र का प्राचीन काल में उनकी अष्टाध्यायी का अध्ययन-क्रम सूत्रपाठ-क्रमानुसारी ही था। सम्पूर्ण अष्टाध्यायी को जो पहले कण्ठस्थ करके पढ़ना चाहते हैं, यह पुस्तक उन लोगों के लिये उपकारी है।
व्याकरण के समस्त ग्रन्थों में अष्टाध्यायी का मूर्धन्य स्थान है। इसीके कारण पाणिनि जी की कीर्तिपताका अद्यावधि फहरा रही है। इस अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और एक-एक अध्याय में
व्याकरण के समस्त ग्रन्थों में अष्टाध्यायी का मूर्धन्य स्थान है। इसीके कारण पाणिनि जी की कीर्तिपताका अद्यावधि फहरा रही है। इस अष्टाध्यायी में आठ अध्याय हैं और एक-एक अध्याय में चार-चार पाद हैं।
कुल मिलाकर बत्तीस पाद होते हैं। अष्टाध्यायी में लगभग ३९९३ सूत्र हैं। अत्यल्प सूत्र में अत्यधिक अर्थों को भर देना पाणिनि और उनकी प्रतिभा का अलौकिक चमत्कार है।
यही छोटा सूत्र स्वल्पाकार को छोड़कर बाद में इतना विराट् रूपधारण कर लेता है कि जिसमें समस्त संस्कृत वाङ्मय ओतप्रोत दिखाई देने लगते हैं। पाणिनि जी की प्रखर प्रतिभा प्रत्येक सूत्र से मुखरित होकर पाठकों को अष्टाध्यायी जैसा ग्रन्थ रटने की शिक्षा दे रही है।
अष्टाध्यायी महर्षि पाणिनि द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण का एक अत्यंत प्राचीन ग्रंथ है।इसमें आठ अध्याय हैं; प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं; प्रत्येक पद में 38 से 220 तक सूत्र हैं। इस
अष्टाध्यायी महर्षि पाणिनि द्वारा रचित संस्कृत व्याकरण का एक अत्यंत प्राचीन ग्रंथ है।इसमें आठ अध्याय हैं; प्रत्येक अध्याय में चार पद हैं; प्रत्येक पद में 38 से 220 तक सूत्र हैं। इस प्रकार अष्टाध्यायी में आठ अध्याय, बत्तीस पद और सब मिलाकर लगभग 4000 सूत्र हैं।
लघुसिद्धान्तकौमुदी पाणिनीय अष्टाध्यायी की परम्परागत प्रवेशिका है। लघुकौमुदीमें संक्षेप की दृष्टि से पाणिनीजी के १२७२ सूत्रों पर उदाहरण सहित व्याख्या की गई है।इस पुस्तक में लघुसिद्धान्तकौमुदीके सूत्रोंको अष्टाध्यायी के क्रम में रखा गया है ताकि एक विषय से सम्बन्धित सूत्र एक साथ रहें।
o What is the meaning of liṅga in Śiva Liṅga?
o How old is Hinduism?
o How does one develop the act of taking the right decision at the right time?
o Why does the mind get distracted while chanting mantras?
o Should one believe in palmistry?
o Why do the youngsters today go abroad?
All of us have asked these questions and many more at some point in time.
Journey with The Enligh
o What is the meaning of liṅga in Śiva Liṅga?
o How old is Hinduism?
o How does one develop the act of taking the right decision at the right time?
o Why does the mind get distracted while chanting mantras?
o Should one believe in palmistry?
o Why do the youngsters today go abroad?
All of us have asked these questions and many more at some point in time.
Journey with The Enlightened is based on such questions raised by the devotees of Śrīmajjagadguru Śaṅkarācārya Svāmī Niścalānanda Sarasvatījī across the country and around the year during his various programmes. Written language is a powerful medium to understand the viewpoint of Śaṅkarācāryajī. With great insight and vast scriptural knowledge, he analyses all the complex issues faced in the modern world. He offers solutions and open discussions on them. He concludes by putting a counter-question - how will our country and the world change unless we work together for a better world? With His blessings, this book is a humble attempt to bring the wisdom of these discourses to a larger audience.
The quest dealt with in Journey with The Enlightened can be categorised under three headings:
o Above Self: Quest regarding God—the highest self ‘Paramātmā.’ How is he? How does he look like? What are his attributes? Why should we believe in him? What goes wrong if we defy him?
o Self, “I”: Who am I? What should I do to see myself? How should I uplift myself?
o Selfless: These questions are the stepping stones to becoming selfless.
If anyone wants to understand the contemporary world, the problems that it faces, and wants to be a part of the solution, not the problem - Journey with The Enlightened is the book for them.
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