मेरा फौजी बेटा

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मेरा फौजी बेटा

बात उस दिन की है, जब मैं अपनी बिटिया को दिल्‍ली छोड़कर आ रही थी। मुझे स्‍टेशन छोड़कर वह लौट गयी। बहुत देर तक उसका उतरा चेहरा मेरी आँखों के सामने घूमता रहा। मन उदास और परेशान सा था। उसका साँवला होता चेहरा और आँखों के नीचे के काले साये मुझे बार-बार याद आते। घबराहट में मुझे नींद भी नहीं आ रही थी और मन भारी-भारी लग रहा था। इस बीच में मेरे फोन में भी कुछ प्रॉब्लम हो गयी। पता नहीं लग रहा था कि बिटिया ठीक से घर पहुँची कि नहीं।

मेरे सामने एक डॉक्‍टर कपल बैठा था। दोनों की शादी को एक साल हुआ था। लड़की लम्‍बी-पतली सी और ब्राउन कलर के चूड़ीदार सूट में थी। आँखों पर चश्‍मा और माथे पर छोटी सी बिंदी। वह गेहुँए रँग की सोबर सी विवाहिता लगती थी। उसके पति को आइ फ्लू हो गया था। हर थोड़ी देर में वह आँखों में ड्रॉप डालता और रुमाल से अपनी दुखती आँखें पोंछता। वह दिल्‍ली में पोस्‍टेड था और उसकी वाइफ किसी दूसरे स्थान से पोस्‍ट ग्रेजुएशन कर रही थी। उसका पोस्‍ट ग्रेजुएशन पूरा हो जाने तक, दो-तीन साल, उन्हें ऐसे ही अलग-थलग रहकर गुजारने थे। थोड़ी देर में ही उसकी पत्‍नी, चादर ओढ़कर ऊपर की बर्थ पर सो गयी और वह निचली बर्थ पर खिड़की से सटा बैठा आँखें पोंछता रहा।

रात को नौ बजे, जब ग्‍वालियर में ट्रेन रुकी, हड़बड़ाते हुए एक युवक चढ़ा और आकर बोला,

“मुझे चार नम्‍बर बर्थ अलॉट हुई है।”

डॉक्‍टर दंपति बोले, नहीं..... ये तो हमारी है। उन्‍होंने बाहर जाकर टी.सी. से बात की तो उस लड़के की दो नम्‍बर की बर्थ थी, मेरी बर्थ के जस्‍ट ऊपर वाली बर्थ। वह युवक लम्‍बा, छरहरा सा था। रँग साँवला ही कहा जाएगा और चेहरा भी एकदम आम सा ही था। लेकिन उसकी नुकीली नाक और चाल-ढाल की स्फूर्ति उसे दूसरों से अलग करती थी। स्‍लीपर से अपग्रेड होकर वह ए.सी. में आ गया था।

दिल्ली से ग्वालियर तक लगभग पाँच घंटे बीत गये थे। अब तक मुझे थकान लगने लगी थी। वह बैठा मोबाइल पर कुछ मैसेजिंग कर रह था। मैंने उससे कहा,

“बेटा, तुम जागोगे क्‍या अभी? मुझे नींद आ रही है।”

“आप लेट जाइये।”

यह कहते हुए उसने मिडिल बर्थ खोलने का संकेत किया। मैंने उसकी भलमनसाहत देखकर उससे कहा कि,

“अगर, भोजन करना हो, तो पहले खा पी लो, वरना मिडिल बर्थ पर खाना खाने में परेशानी होगी।”

“अरे, हमारी तो जिंदगी ऐसी ही जाती है। आप आराम करिये, मैं बर्थ खोले देता हूँ।”

उसके बाद मैं सो गयी। पता नहीं, क्‍या अजीबोगरीब सपने दिखते रहे। रात को लगभग ग्यारह बजे, मोबाइल बजा। पता नहीं कैसे बिटिया का कॉल रिसीव हो गया। जब मेरी बिटिया से बात हो पायी, तब मुझे चैन पड़ा। इसी बीच में मैंने देखा था कि उस लड़के ने जीन्‍स बदलकर लोअर पहन लिया था और एक बड़े ग्रे रँग के बैग में उसको रख रहा था।

सुबह जब पौने सात बजे मेरी नींद खुली, तो वे मेरी सीट पर बैठा वापस अपना लोअर पैक कर रहा था। मैं वैसी ही सूजी आँखों और बिखरे बालों में बैठ गयी थी।

“बेटा, चाहो तो सीट गिरा लो।”

सारे बिस्‍तर अपर बर्थ पर डालकर हमने बर्थ खोल ली। मेरी आदत है कि मैं उठते से ही ब्रश आदि करके तैयार हो जाती हूँ, लेकिन पता चला कि बाथरूम में पानी ही नहीं है, इसलिये मैं वैसी ही बैठी रही। उसका बैग देखने में मुझे बहुत अच्‍छा लगा। बड़ा सा ग्रे कलर का। उसमें ढेर सारी पाकेट थीं।

“तुम्‍हारा बैग बहुत बढ़िया है।”

“हाँ, हमें कैंटीन से इशू होता है।”

“अरे, तो तुम क्‍या आर्मी में हो? ”

“हाँ, आर्मी में।”

“जबलपुर पोस्टिंग हैं।”

“नहीं जबलपुर तो बस दो दिन रुकना है। फिर तो मैं छत्‍तीसगढ़ बॉर्डर पर जाऊँगा।”

“छत्‍तीसगढ़ बॉर्डर पर?”

“जी हाँ। नक्‍सलाइट एरिया में कहीं पोस्टिंग होनी है।”

मेरा सर्वांग सिहर गया। ऐसा नाज़ुक, कोमल सा बच्‍चा और नक्‍सलाइट एरिया में। मेरे अंदर की ममता उमड़ पड़ी। वैसे भी, पहले पढ़ाई और फिर नौकरी के सिलसिले में अपने बच्‍चों के घर से जाने के बाद मुझे हर लड़के में अपना बेटा नज़र आता है।

“आपने देखा ही होगा टी.वी. पर रोज पंद्रह बीस जवान नक्‍सलाइट से लड़ते हुए मारे जाते है।”

“बेटा, टी.वी. पर देखना अलग बात है और ऐसे जन से मिलना जो रोज नक्‍सलाइट से मुठभेड़ करता हो अलग बात है। नक्‍सलाइट भी तो तुम्हारे जैसे ही जवान होते होंगे।”

“हाँ। चौदह से चालीस साल की उम्र के बीच के। उसमें लड़कियाँ भी होती है।”

“लड़कियाँ भी?”

“जी हाँ। लड़कियाँ भी।”

“लेकिन आखिर नक्‍सलाइट लड़ते क्‍यों चले आ रहे हैं?”

“उनका एम (उद्देश्य) है, दो हजार पचास तक पूरे भारत पर कब्‍ज़ा।”

“वह तो संभव नहीं है।”

हमारा गंतव्य स्टेशन निकट आ रहा था, इसलिये मैंने सोचा कि अब मुझे तैयार हो जाना चाहिये। मेरे पति मुझे प्लेटफॉर्म पर रिसीव करने आने वाले थे। तीन दिन बाद अगर वह, मुझे इस अवस्‍था में पाएँगें तो क्‍या सोचेगें? मैंने अपनी बड़ी सी पानी की बोतल उठायी और ब्रश करके तैयार हो गयी।

जब मैंने हल्‍की लिपस्टिक और पाउडर लगाकर बाल काढ़ लिये तो पर्स में से एक पतली-सी साईं बाबा की बुक और एक अपने गुरु जी की बुक निकाली उनको माथे से लगाकर, मैंने उसे अपने अनजाने बेटे को दिया।

“ये अपने पास रख लो। गुरुदेव और साईं राम तुम्‍हारी रक्षा करें। पता नहीं उस बीहड़ अरण्‍य में कहाँ जाओगे? तुम्‍हारी मम्‍मी बहुत बहादुर हैं, जो बेटे को फ्रंट पर भेज देती हैं।”

“आंटी! मेरा बड़ा भाई भी आर्मी में है। वह जम्‍मू में पोस्‍टेड है।”

“जम्‍मू यानी एक और आतंकवादियों का इलाका। उस माँ का दिल कितना बड़ा होगा, जिसने अपने दोनों बेटे, देश के नाम अर्पण कर दिये, जिनके सिर पर मौत सदा मंडराती रहती है। मैं तो अपने बच्‍चों को होस्‍टल भेजने में भी रोती थी और जब तक उनका पहुँचने का फोन नहीं आ जाता तब तक नींद नहीं आती।”

“आंटी! मम्‍मी भी रात से रो रही हैं। सुबह भी बात की तो वह रो रही थी।”

उसकी आँखें भी नम हो गयी। ख़ुद पर नियंत्रण पाकर वह कहने लगा,

“मेरा शुरू से ही पढ़ने लिखने में मन नहीं लगता था। इंटर के बाद बस बी.ए. कर लिया। एक ही जूनून था, फौज में जाना है और बस फौज में पहुँच भी गया।”

और फिर वह हलके से हँसकर बात को जारी रखते हुए बोला,

“मेरा तो पूरा परिवार फौज में है। मेरे सारे चाचा, ताऊ। सिर्फ़ मेरे पापा ही सिविलियन है। सब के लड़के भी फौज में है और सब के दामाद भी फौजी ही ढूँढे हैं। परिवार की सारी लड़कियाँ भी फौजियों को ही ब्याही गयी है।”

फिर थोड़ी साँस लेकर बोला,

“मेरा भाई जम्‍मू पोस्‍टेड है और मेरी नवविवाहिता गाँव में रहकर सास–ससुर की सेवा कर रही है। जब किसी शादी में या दीवाली पर हम सब इकट्ठे हो जाएँ तो लगता है जैसे पूरी पलटन ही इकट्ठी हो गयी हो और हम सब मिलकर खूब मौज मस्‍ती करते है।”

मैंने भरे गले से कहा,

“बेटा, ये किताब अपने पास रखो। ईश्वर तुम्हारी रक्षा करें।”

उसने एक-दो पेज पढ़कर माथे से लगाकर वह किताब अपने बैग में रख ली।

“तुम कभी विविध भारती पर जयमाला सुनते हो क्‍या?जवानों के लिये आता है।”

“नहीं आंटी! इतना टाइम ही कहाँ मिलता है हमें। वैसे डिश टी.वी. है हमारे पास।”

उसने फिर अपने मोबाइल पर मुझे फोटो दिखायी कि टेंट में कैसे रहते है? ज़रूरत पड़ने पर कैसे ख़ुद खाना बनाते हैं? दूर-दूर तक फैले हुए हरे-हरे घास के मैदान और उसमें कहीं लेटे और कहीं बैठे हुए फौजी।

“हम जो अपने घरों में इतने आराम से बैठे होते हैं, वह तुम फौजी लोगों के कारण ही तो संभव हो पाता है।”

मैंने अपने फोन पर उसका नंबर फीड कराया और उसको अपना नंबर दिया।

“तुम कितने छोटे से हो और कितने बहादुर।”

“आंटी अब तो आपसे जरूर बात करूंगा और कैंटीन से आपको भी ऐसा बैग दिलवाऊँगा।”

जब मेरे पति मुझे डिब्‍बे के अंदर लेने आये तो उनके गोरे मुख और ब्‍ल्‍यू शर्ट को देखकर मैं आनंदित हो उठी और मेरे मुँह से यही शब्‍द निकले कि देखिये, ये मेरा नया बेटा है। उसने चटपट अपना बैग उठाया और नीचे उतर गया। मुझे लगा कि अरे इसने तो चलते समय बॉय भी नहीं किया चलो कोई बात नहीं, सहयात्री ही तो था।

लेकिन जब हम प्‍लेटफॉर्म पर नीचे उतरे, तो मेरा तना हुआ बेटा मुस्‍कुराता खड़ा था। उसने आदरभाव से झुककर हम दोनों के पैर छुए और हमारे मुँह से निकला,

“भगवान सदा तुम्‍हारी रक्षा करें! चिरंजीवी भव!”

फिर वह हाथ जोड़कर, सिर नवाकर, भीड़ के उस सैलाब को चीरता हुआ, तेज़ी से कदम बढ़ाता हुआ उसी भीड़ में कहीं ग़ायब हो गया।

उससे हुई बातों का असर मेरे दिमाग़ पर बहुत देर तक बना रहा। मैं समझ नहीं पाई कि ये कैसा अनाम संबंध था, जो मुझे आधे घंटे में ही ममता की डोर से बाँध गया था। हमसे विदा लेकर जाते समय उसकी आँखें भी नम हो आई थीं। कुछ एक बार, उससे फोन पर बात भी हुई। फिर क्रमशः फोन आने का सिलसिला टूट गया। अब पता नहीं वह कहाँ रहकर देश सेवा में जुटा होगा? उससे मिलकर जीवन का एक नया दृष्टिकोण उत्‍पन्‍न हुआ था। एक नया उल्‍लास, एक नयी उमंग। हम लोग तो बस छोटी-छोटी परेशानी आने पर घबरा जाते है, परंतु ये फौजी हँसते-हँसते अपने सीनों पर दुश्‍मनों की गोलियाँ झेल जाते है। अब जब कभी भी मैं टी.वी. पर नक्‍सलाइट से मुठभेड़ की खबर देखती हूँ तो मुझे अपना वह अनाम बेटा याद आ जाता है। बड़ी सी राइफल लिये, न जाने कौन से जँगल में, किस दरख़्त के पीछे या लम्‍बी घास में छुपकर दुश्‍मनों की गोलियों का सामना किया होगा। हे ईश्‍वर, उसकी रक्षा करें। वह जहाँ भी रहे, सदैव सुरक्षित रहे।

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