तीन चेहरों का घर

यंग एडल्ट फिक्शन
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बहुत कोशिश के बाद राम भजन मुस्कुराए थे। इधर कई सालों से रामेश्वरम् कॉलोनी में घर बनाकर रहे रहें हैं। पर, शायद किसी ने उनके चेहरे पर मुस्कान देखी हो! वे रत्नाकर जी से अचानक दुर्गा मंदिर के पास मिल गए थे। दोनों क्लासमेट थे। एम.ए.साथ किए थे। वर्षों बाद मिलकर जैसे वे जुड़ा गए थे। रत्नाकर सिंह ने पूछा था उनसे, "कैसे हैं राम भजन भाई? कहाँ रह रहे हैं? घर-परिवार सब कुशल मंगल तो है?"

राम भजन जी को न जाने क्यों कुछ अच्छा न लगा। वे कुछ समय के लिए खो-से गए! इस बार वे बोल रहे थे और रतन सिंह सुन रहे थे। " सब ठीक है रतन भाई, किंतु यह ठीक रहना भी कैसा ठीक रहना है! उम्र पैंसठ की हो गई। बेटा, पतोहू पटना में रहते हैं। मैं बिक्रमगंज में बड़ी हशरत से घर बनाया था कि रिटायर्मेंट के बाद यहीं रहूँगा। बीवी और बच्चे साथ होंगे, पर अकेला किसी तरह जी रहा हूँ।" उनकी बातों को सुनकर रतन सिंह कुछ समय के लिए गुमसुम हो गए। वे राम भजन जी को अच्छी तरह जानते थे। एम.ए. के वक्त शायद कोई ऐसा दोस्त हो जो उनसे बिन प्रभावित हुए रहा हो। उनके चेहरे पर हमेशा स्निग्ध मुस्कान तैरती। बिन चाय पिलाए तो वे रहते न थे। पढ़ने में अव्वल थे। उन्हें जल्द नौकरी मिल गई थी। घर की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। फिर भी ट्यूशन आदि कर के आरा में पढ़ रहे थे। लेकिन आज उनसे मिलकर मि.सिंह को खुशी और ग़म एक साथ हुई।

आगे राम भजन जी ने उन्हें बताया-" लड़का इंजीनियर है। सैलरी भी अच्छी है। पर वह बिक्रमगंज नहीं आना चाहता। वह मुझे बैक्वार्ड कहता है। उसकी बीवी बनारस की है। दो पोते हैं। उन्हें मेरे पास फटकने नहीं देती है। कहती है -"दादा से दूर रहो, खाँसी हो जाएगी।" यह कहते-कहते लगा राम भजन रो पड़ेंगे। वे न चाहते हुए भी यह सब कहे जा रहे थे। बर्षों बाद तो कोई उनका अपना सुनने वाला मिला है। उनका जी किया कि मि.सिंह को दूकान पर चाए पिलाएँ। पर, पॉकेट में पैसा न था। उनकी बीवी सारा पैसे लेकर पटना बेटे के पास चली जाती है। सामान व एल.पी.जी. गैस खरीद जाती है। एक-एक पैसे की हिसाब मांगती है। पर, इसे कह न पाए। वे अंदर-अंदर घूट रहे थे।पर कर भी क्या सकते थे?

मि.रतन सिंह ने आगे की बात समझते हुए भी चुप रहना मुनासिब समझा। वे उनकी ऊंगली पकड़ कर बोले-"मेरे मित्र राम भजन जी, आज आप मेरे घर चलिए। यही तीन किलोमीटर दूर है। टैंपू से चलेंगे। रिटर्निंग में मेरा बेटा छोड़ देगा। एक बार राम भजन जी को लगा कि कह दें-कभी बाद में। पर वे ऐसा कह न पाए। फिर क्या था, दोनों मित्र टेंपू में बैठे। और हुर्र से गाड़ी कालतोर की सड़कों पर सरकने लगी। मि.राम भजन बीवी, बच्चे और बहू को भूलते जा रहे थे। उन्हें मि.रतन सिंह का साथ बहुत स्नेहिल लग रहा था। वे अब हल्के मुस्कुरा रहे थे। रतन सिंह भी बहुत खुश थे।

यही कोई पंद्रर मिनट बाद राम भजन जी मि.सिंह के आलीशान भवन के सामने थे। सामने गुलमोहर और ईमली के पेड़ बहुत अच्छे लग रहे थे। तभी उजला टी-शर्ट व जींस पहने हुए एक नौजवान लड़का छत के जीने से उतरा। आकर उसने मि.राम भजन जी को पाँवलगी किया। चेहरे व व्ययाहार से वह बड़ा शालीन लगा। मि.राम भजन ने पूछा-" मि.सिंह यह लड़का कुछ आपके जैसा लगा रहा है?" इस पर चुटकी लेते हुए मि.सिंह ने कहा-"यह मेरा लड़का अभय है। लंदन में रहता है। परसो सपरिवार आया है। चलिए सबसे मिलाते हैं।" फिर दोनों मित्र व अभय एक साथ घर में दाखिल हुए। सीढ़ी पर चढने में मि.राम भजन जी को कुछ दिक्कत हो रही थी। अभय उनको सहारा दे रहा था।" आइए अंकल, आइए! दीजिए आपका बाँह थाम लूँ।" राम भजन जी को लगा-काश! भगवान सभी को ऐसा बेटा दें। उन्हें लगा अभय उनका अपना लड़का है। वह कहीं से भी गै़र नहीं लग रहा था। अब तीनों एक बड़े कमरे में थे। सोफा सामने थी। बगल डायनिंग टेबल थी। सोफे की ओर इशारा करते हुए मि.सिंह ने कहा-" आप बैढ़िए। पानी मंगा रहा हूँ।" फिर वे अपनी बीवी सावित्री को पूकारते हुए कहा-" देखो जी, आज कौन आया है अपने घर, पानी-मीठा लेते आना जी मेरा यार आया है!" कुछ समय बाद सावित्री चीनी मिट्टी की बनी तस्तरी में चाय, मखाना, बिस्कुट, काजू बगैरह ले आईं। और " भाई जी नमस्ते ।" कह अभिवादन की। राम भजन जी सोच रहे थे-अपनी पत्नी के बारे में। जिसके लिए वे क्या नहीं किए? पर वह इस बुढ़ौती में बस इसलिए छोड़कर चली गई बेटे संग कि बिक्रमगंज का घर बेच पटना क्यों नहीं गए!" बड़ी मेहनत से उन्होंने घर बनाया था। भला वे कैसे उसे बेचते? वे मन ही मन सोच ही रहे थे कि अभय अपनी पत्नी सोफिया व बेटी तनू संग कमरे में आया और बेटी को बोला-"नमस्ते करो नए दादू को।" तनू ने हाथ जोड़-"नमस्टे डाडू" कहा। उसकी आवाज सुन मि.रतन सिंह, उनकी पत्नी, मि.राम भजन जी और सोफिया मुस्कुरा दी। उसने भी -"परनाम " बोला। राम भजन जी की उदासी, दुख और हताशा न जाने कहाँ चले गए थे। उन्हें लग रहा था कि अब वे अकेला नहीं हैं। उनका हृदय इस परिवार से मिलकर बाग़-बाग़ हो गया था! अब वे रिक्त नहीं थे; बल्कि भरे हुए थे। उनके भीतर जीने की लालसा बड़ गई थी।

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