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"It was a wonderful experience interacting with you and appreciate the way you have planned and executed the whole publication process within the agreed timelines.”
Subrat SaurabhAuthor of Kuch Woh Palअव्यंगभानु भारतीय संस्कृति के अंतर्गत विविध संप्रदायों में से एक मुख्य सौर संप्रदाय के अभिन्न अंग अव्यंग के विषय में संकलित ग्रंथ है। इसमें प्राप्त विधान और कहीं भी उपलब्ध नहीं। लेखक ने बहुंत परिश्रम के साथ इन सबको एकत्रित करके पुस्तक की आकृति दी है ताकि यह जनसाधारण तक पहुंच सके। अव्यंग यज्ञोपवीत के समान ही एक ऐसा सूत्र है जिसे सौर विप्र अपने कमर पर धारण करते हैं। भविष्यपुराण में इसका सांकेतिक वर्णन प्राप्त है। उसी वर्णन को आधार मानकर इस ग्रंथ का सृजन हुआ है। आशा है कि आप सबको यह अत्यंत भाएगा ।इसके साथ ही इसमें लेखक की काव्यप्रतिभा भी दृश्यमाना है। इस सम्पूर्ण ग्रंथ में 12 रश्मियाँ (अध्याय) हैं। कुल 360 श्लोक हैं। इसमें भविष्योत्तर पुराण के बृहत् आदित्यहृदय स्तोत्र तथा भविष्यपुराण के अव्यंग नामक अध्याय को यथावत् संकलित किया गया है। परिशिष्ट भाग में कुछ अन्य स्तोत्रों के साथ ही कुछ आवश्यक सौर यंत्रों को एकत्रित किया गया है। साथ ही लेखक के माध्यम से ही रचित "श्रीसूर्यहर्षणस्तोत्र" को भी संकलित किया गया है।
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Your review has been deleted and won’t appear on the book anymore.आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी
आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी सनातन धर्म के प्राचीन ग्रंथों के अध्येता, भागवत आदि शास्त्रों के प्रवक्ता तथा एक संस्कृत कवि हैं। इनकी विलक्षणता यही है कि बिना किसी उत्कृष्ट अध्ययन के ये संस्कृत काव्य की रचनाएं किया करते हैं। आचार्यश्री कौशलेन्द्रकृष्ण जी का गृहनाम पं. श्री कौशलेन्द्रकृष्ण शर्मा है। इनका जन्म आश्विन कृष्णपक्ष ८ विक्रमाब्द २०५३ को वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य अन्तर्गत कवर्धा जिले के जोगीपुर नामक छोटे से ग्राम में, एक मग शाकद्वीपीय ब्राह्मण परिवार में हुआ। इनका वर्तमान निवास पैतृक ग्राम सेन्हाभाठा (कुण्डा), जिला कवर्धा (कबीरधाम) है। इनके पिता का नाम पं. श्री नन्दकिशोर शर्मा जी है। इनकी माता का नाम श्रीमति कुसुम देवी शर्मा है, जिसका जनवरी सन् २०१८ में स्वर्गवास हो चुका है। इनके पिताश्री की मुख्य आजीविका पौरोहित्य ही रही है। साथ ही वे भागवत आदि शास्त्रों के अच्छे जानकार भी हैं। इन्ही के दिये भगवद्भक्तिमय वातावरण में इनका लालन सम्पन्न हुआ। इनके पिताश्री श्रीमद्भागवत के आदर्श प्रवक्ता हैं। अपने पिता के पदचिह्नों पर चलते हुए ही इन्होंने पौगण्डावस्था से ही श्रीरामचरित मानस का टीका प्रवचन प्रारम्भ किया। वह ऐसी आयु थी कि बालक में इतना ज्ञान नहीं होता। ऐसी अवस्था में बालक के आसपास के जनों पर उसका व्यक्तित्वनिर्माण टिका होता है। अतएव इस छोटी अवस्था में प्रवचनारम्भ का सारा श्रेय ये अपने पिताश्री, माताश्री तथा इनके नगरवासियों को देते हैं। नगरवासियों के आयोजन में, उनके ही माध्यम से बलात् बालक मंचासीन हुआ। तब से कथा में तथा शास्त्राध्ययन में इनकी अगाध रुचि हो गई। प्रतिदिन नियमित काल तक इन्हें शास्त्रों का अध्ययन भाता था। छोटी सी अवस्था में ही इनके मुखाग्र से अध्ययन के माध्यम से प्राप्त श्रुतातीत तत्वों को सुनकर इनके निकटस्थ इनपर गर्व किया करते थे। साथ ही साथ इनकी कक्षाएं भी चल रहीं थीं। उनमें भी इनका प्रदर्शन उत्तम ही था। पिताश्री की भागवत कथाओं को सुनते हुए, उनके माध्यम से अध्ययन करते हुए १७ वर्ष की आयु से इन्होंने भागवत कथा का वाचन भी प्रारम्भ कर दिया। इसके उपरान्त देवीभागवत, गीता प्रवचन, शिव आदि अन्य पुराण, रामायण आदि के एकल विषयों में इनका प्रवचन प्रारम्भ हुआ, जिनमें अध्ययन के कारण इनकी अच्छी पकड़ सिद्ध होती गई।
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