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"It was a wonderful experience interacting with you and appreciate the way you have planned and executed the whole publication process within the agreed timelines.”
Subrat SaurabhAuthor of Kuch Woh Palगुलामगिरी...
गुलामगिरी में 16 अध्याय हैं और यह किताब संवादात्मक शैली में लिखी गयी है। पुस्तक में धोंडीराव और जोतिबा एक दूसरे से बात चीत करते हैं। सवाल जवाब करते हैं और भारत के इतिहास में जा घुसते हैं।
सामंतवाद पर आधारित ब्राह्मणवादी जातिवाद ने आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक रूप से गुलाम बनाने के लिए जहां एक तरह भयंकर दमन, हिंसा का सहारा लिया वहीं पर इस को टिकाए रखने के लिए, जातिवाद का वैचारिक और मानसिक आधार कायम करने के लिए, उसके जनमानस में अंदर तक बैठा देने के लिए धार्मिक रीति-रिवाजों, कर्मकांडों, संहिताओं, वेद और पुराणों का सहारा लिया है। मनुष्य के दिमाग में बिठा दिया गया है कि वह गुलामी ढोने के लिए ही पैदा हुए हैं। ब्राह्मवादी दर्शनशास्त्र पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत के बल पर मानसिक गुलामी को थोपे हुए है। इसी की और जोतिबा फुले इशारा करते हुए कहते हैं कि इन झूठे, कृत्रिम ग्रंथों के कारण ही शूद्रों-अतिशूद्रों को गुलाम बनाया गया है।
इस पुस्तक ने दक्षिण, पश्चिम भारत में अपने समय में क्रांतिकारी भूमिका निभाई और कई जातिविरोधी आंदोलनों का आधार बनी है। आज हिंदी पट्टी को भी ऐसे साहित्य की जरूरत रही है। हिंदी पट्टी में भक्तिकाल के बाद कोई ऐसा साहित्य नहीं रचा गया जो जातिवाद के खिलाफ किसी आंदोलन का आधार बन सके। हमें देश की विभिन्न भाषाओं में मौजूद जातिवाद विरोधी साहित्य के हिंदी अनुवाद की बेहद जरूरत है।
gagandeep singh
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Your review has been deleted and won’t appear on the book anymore.ज्योतिराव गोविंदराव फुले
सबसे ज्यादा शक्तिशाली गैर-ब्राह्मण आंदोलन महाराष्ट्र में फुले और तमिलनाडु में पेरियार के आंदोलन रहे। दोनों ही आन्दोलन सामन्ती, उच्च जाति के अभिजातों के विरुद्ध थे पर अंग्रेज-विरोधी नहीं थे। फुले और पेरियार दोनों ही पश्चिम के उदारपंथी विचारों से प्रभावित रहे। लगभग 20 सालों तक समाज सुधारक के तौर पर कार्य करने के बाद जोतिबा फुले ने 1873 में सत्यशोधक समाज स्थापना की। इसका मुख्य कार्य ब्राह्मणों द्वारा किए जाने वाले शोषण के विरुद्ध गैर ब्राह्मण जातियों में चेतना का प्रसार करना था। फुले खुद मध्य जाति से थे और मिशनरी स्कूल में शिक्षित हुए थे। लेकिन उन्होंने अपनी गतिविधियां केवल अपनी जाति तक सीमित नहीं रखी बल्कि बहुत सारी गैर-ब्राह्मण जातियों में अपने आंदोलन का प्रसार किया।
फुले ने अपने प्रयास मुम्बई की जनता के उत्पीड़ित तबकों मजदूर वर्ग पर और पुणे तथा आसपास के किसानों एवं अछूत तबकों के बीच केन्द्रित किये। लोकप्रिय, तीखा प्रयास करने वाली शैली और भाषा का प्रयोग करते हुए अपने गीतों, पुस्तिकाओं तथा नाटकों के जरिये फुले ने ‘शेटजी-भटजी’ वर्ग (सूदखोर-व्यापारी और पुजारी वर्ग) के उन तौर-तरीकों का पर्दाफाश किया जिनसे वे सर्वसाधारण लोगों, खास कर किसानों को ठगते थे।
सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मण पुजारियों को बुलाकर आयोजित किये जाने वाले परम्परागत विवाह समारोहों को नकार दिया, ऐसे नाइयों की हड़ताल का नेतृत्व किया जिन्होंने विधवाओं के सिर के बाल छीलने से इन्कार किया था, स्त्रियों के लिए स्कूल, परित्यक्ता स्त्रियों के लिए आश्रय-स्थल, अछूतों के लिए स्कूल शुरू किये और पीने के पानी के कुँओं को अछूतों के लिए खुला कर दिया। फुले के मार्गदर्शन में 1890 में एनएम लोखण्डे ने मुम्बई के सूती कपड़ा मिल मजदूरों का पहला सुधारवादी संगठन खड़ा किया जिसे ‘मिल हैण्ड्स एसोसियेशन’ कहा गया। फुले ने किसानों के बीच आधुनिक कृषि को प्रोत्साहन दिया, नहरों का पानी इस्तेमाल न करने के अन्धविश्वास के विरुद्ध संघर्ष किया, इसका प्रयोग करने के लिए खुद जमीन खरीदी और उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने सहकारिता गठित करने की पहल का दिलोजान से समर्थन किया और दरअसल सत्यशोधक समाज के कार्यक्रम में यह सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में शामिल रहा। मराठी शूद्र किसानों के पुनर्जागरण के प्रतीक के तौर पर शिवाजी का प्रयोग करने वालों में फुले पहले व्यक्ति रहे। उन्होंने मराठी में शिक्षा देने और प्रशासन में अनुवांशिक पदों का खात्मा करने के लिए संघर्ष किया। फुले का जनवादी नजरीया और राष्ट्रीयतावादी भावना रही, जिसके कारण किसानों के प्रति उनका झुकाव सुसंगत रहा। यह कार्यक्रम ब्राह्मणवाद और शेटजी-भटजी वर्ग (व्यापारी-पुजारी वर्ग) द्वारा शोषण के खिलाफ लड़ने तक सीमित रहा। सत्यशोधक समाज का कार्यक्रम उभरते किसानों के हित को दर्शाता रहा।
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