आदिवासी दर्शन, समाज, भाषा-संस्कृति और साहित्य से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर सुप्रसिद्ध आदिवासी लेखिका और आदिवासियत की पैरोकार वंदना टेटे की यह चौथी पुस्तक है। यह किताब उन दिनों तैयार की गई है जब ‘पत्थलगड़ी’ का मुद्दा रांची से लेकर दिल्ली के मीडिया की सुर्खियों में था। झारखण्ड और छत्तीसगढ़ की राजनीति में हड़कंप मचा हुआ था। इस पूरे शोरशराबे में लोगों का ध्यान पहली बार इस परंपरा पर गया। पत्थलगड़ी की परंपरा का जितना महत्व राजनीतिक है, उससे कहीं ज्यादा महत्व ऐतिहासिक और साहित्यिक है। यानी ‘पत्थलगड़ी’ ऑरेचर (वाचिकता) की साहित्यिक परंपरा के सबसे पुराने दस्तावेज हैं जो पाषाणकाल में पुरखों द्वारा तो लिखे ही गये, आज भी आदिवासी समाजों में सामूहिक तौर पर लिखे जा रहे हैं। अपनी इस नई पुस्तक में लेखिका ने बहुत ही विस्तार से ऑरेचर की परंपरा और पत्थलगड़ी की विरासत पर प्रकाश डाला है।