जात-पांत से ऊपर उठकर आदमी को आदमी की तरह देखने का विनम्र निवेदन संत कवियों की वाणियों में देश का दलित पिछड़ा समाज सदियों से करता आ रहा है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने ठीक यही बात अधिकार और कर्तव्य की आधुनिक शब्दावली मे कही है लेकिन सर्व स्वमूलक भारतीय समाज पर इसका कोई असर देखने को नहीं मिला पिछले दो दशकों में इसी विमर्श ने कांशीराम के वैचारिक और सांगठनिक नेतृत्व में नया आकार लिया पहली बार देश के दलितों अति पिछड़ों को एक आक्रामक भाषा मिली एक क्रम में आते-आते यह प्रक्रिया धुंधला सी गई है लेकिन इसकी अब तक की उपलब्धियों को याद करने का समय यही है अब कांशीराम हमारे बीच नहीं है।