“नेह’’ या “प्रेम’’ का अपना एक अमिट व अटूट बंधन होता है । जो कि, बिना किसी धागे के, रिश्ते के, समझोते के, व्यवहार के, स्पर्श के, नजदीकी के, भी अनुभूत किया जा सकता है ।
नेह का अहसास प्रकृति में इत-उत अन्यत्र नजर आती है । पंछी, नदिया, ताल-तलैया, घटायें, पर्वत, बहार, पतझड़, मेघ, बरखा, कली प्रसून भ्रमर, मयूर समस्त नेह के प्रतीक बन अपनी-अपनी तरह से इसकी व्याख्या करते प्रतीत होते है ।
नेह भ्रमर व कलिका का, नेह बदली व मयूर का, नेह घरा व अंबर का, नेह चातक व अमिय का, “क्या’’? ये नेह कहीं भी किसी अश्लीलता, अभद्रत अथवा मिथ्या आकर्षण का प्रतीक दिखते है । “नही’’ “ये सब’’ उस अनंत के साम्राज्य का विस्तार करते हुए नेह बंधन को अति विशिष्ट व सूक्ष्म परिभाषा के रूप में प्रस्तुत करते है ।
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