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Subrat SaurabhAuthor of Kuch Woh PalDurga Singh Udawat was born on 26th June, 1969 in Janasani, Rajasthan. He became a teacher and works in the social field to give a new direction to society and to give positive thoughts to the youth. Read More...
Durga Singh Udawat was born on 26th June, 1969 in Janasani, Rajasthan. He became a teacher and works in the social field to give a new direction to society and to give positive thoughts to the youth.
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“नेह’’ या “प्रेम’’ का अपना एक अमिट व अटूट बंधन होता है । जो कि, बिना किसी धागे के, रिश्ते के, समझोते के, व्यवहार के, स्पर्श के, नजदीकी के, भी अनुभूत किया जा सकता है ।
“नेह’’ या “प्रेम’’ का अपना एक अमिट व अटूट बंधन होता है । जो कि, बिना किसी धागे के, रिश्ते के, समझोते के, व्यवहार के, स्पर्श के, नजदीकी के, भी अनुभूत किया जा सकता है ।
नेह का अहसास प्रकृति में इत-उत अन्यत्र नजर आती है । पंछी, नदिया, ताल-तलैया, घटायें, पर्वत, बहार, पतझड़, मेघ, बरखा, कली प्रसून भ्रमर, मयूर समस्त नेह के प्रतीक बन अपनी-अपनी तरह से इसकी व्याख्या करते प्रतीत होते है ।
नेह भ्रमर व कलिका का, नेह बदली व मयूर का, नेह घरा व अंबर का, नेह चातक व अमिय का, “क्या’’? ये नेह कहीं भी किसी अश्लीलता, अभद्रत अथवा मिथ्या आकर्षण का प्रतीक दिखते है । “नही’’ “ये सब’’ उस अनंत के साम्राज्य का विस्तार करते हुए नेह बंधन को अति विशिष्ट व सूक्ष्म परिभाषा के रूप में प्रस्तुत करते है ।
तुम मेरे हो, प्रीत की भावनाओं का ऐसा संग्रह है, जिसमें कवियत्री ने प्रेम की शाश्वतता व स्थायित्त्व के आधार पर प्रिया व प्रिय को एक-दुसरे का पूरक बताया है, व समय-समय पर जीवन की तमस भर
तुम मेरे हो, प्रीत की भावनाओं का ऐसा संग्रह है, जिसमें कवियत्री ने प्रेम की शाश्वतता व स्थायित्त्व के आधार पर प्रिया व प्रिय को एक-दुसरे का पूरक बताया है, व समय-समय पर जीवन की तमस भरी संगीन गलियों में अपने उजास रूप में साथ होने का आभास कराता है ।
प्रिया व प्रिय के माध्यम से कवियत्री ने एक रहस्यवाद को चित्रात्मक किया है । जो कि, प्रकृति व पुरुष सा स्त्री व पुरुष के रूप में प्रेम की प्रगाढ़ता का प्रदर्शन करते हुए आत्मा व परमात्मा सा परस्पर अर्द्धांग स्वरूप बनाता है ।
पुरूष पौरूषत्त्व खो रहा है, स्त्री का स्त्रीत्त्व माँ का ममत्त्व चट हो गया पिता का पितृत्त्व क्षीण हो चला राम लक्षण से भ्रातृत्त्व को मानने वाली संस्कृति भ्रात्तृहन्ता हो गई । <
पुरूष पौरूषत्त्व खो रहा है, स्त्री का स्त्रीत्त्व माँ का ममत्त्व चट हो गया पिता का पितृत्त्व क्षीण हो चला राम लक्षण से भ्रातृत्त्व को मानने वाली संस्कृति भ्रात्तृहन्ता हो गई ।
स्त्री की लज्जा ने स्वच्छंदता का रूप ले लिया जिस देह को सूर्य-चन्द्र भी बमुश्किल देख पाते थे, उसे इंस्ट्रा जैसी साइट पर आम संभ्रांत महिलायें प्रदर्शित कर रही है । शील व संयम हवा हो गया है ।
आज सीता-सावित्री की संस्कृति में घर-घर रंभा मेनका बनने जा रही है ।
स्वतंत्रता के नाम पर नैतिकता व मूल्यों का होता पतन कवियत्री को भीतर तक झकझोर गया ।
आज शिक्षक, शिक्षक नही रहा, भक्षक हो गया । चिकित्सक धन हेतु यमराज हो गया । नौकर स्वामिभक्त न होकर घर का भेदी बन लंका ढ़ा रहा है ।
मत मारों कोख में समाज के सभी वर्गो में एक ताड़ना स्वरूप है, लेखक का मन चीत्कार कर रहा है । उस नन्हीं जान हेतु जो अधखिली होने पर भी श्वासों के पूर्ण वयस्क होने से पहले ही नोच खसोंट कर
मत मारों कोख में समाज के सभी वर्गो में एक ताड़ना स्वरूप है, लेखक का मन चीत्कार कर रहा है । उस नन्हीं जान हेतु जो अधखिली होने पर भी श्वासों के पूर्ण वयस्क होने से पहले ही नोच खसोंट कर मिटा दी जाती है, धिक्कार करता है उस वर्ग पर जो इस निर्मम कृत्य में सहयोगी होते है, लेखक ने उस नन्हीं जान के दर्द को, समझ कर बयान करने का एक क्षुद्र प्रयास किया है । इसे पढ़कर शायद कोई, मासूम कली के दर्द को समझ सके, उसे कुचलने से पहले उस पर बीतने वाले मंजर को महसूस कर सके व इस कुकृत्य से तौबा कर ले लेखक की चाहना है कि यह पुस्तक व्यक्ति-व्यक्ति तक पहुँचे और सभी एक जुट हो भ्रूण हत्या के खिलाफ होते आगाज को उसके दर्द को महसूस करके अंजाम तक पहुँचाये, कन्या बचाओं महायज्ञ में लेखक की इस नन्हीं आहुति से सुगंधित समिधा बने और नारी जीवन को महका दे, यही चाहना के साथ ये पुस्तक प्रस्तुत है ।
इस संग्रह में कवियत्री ने शराब की गंदी लत के चलते, पारिवारिक पीड़ा व समाज में व्याप्त हो जाने वाली, ’बुराईयों’ का वर्णन किया हैं ।
तथा इसे बारम्बार त्याज्य बता
इस संग्रह में कवियत्री ने शराब की गंदी लत के चलते, पारिवारिक पीड़ा व समाज में व्याप्त हो जाने वाली, ’बुराईयों’ का वर्णन किया हैं ।
तथा इसे बारम्बार त्याज्य बताते हुए इसके विभिन्न विद्रूपो को प्रदर्शित करते हुए इसके द्वारा होने वाले पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, नैतिक, चारित्रिक व वैयक्तिक पतन का क्रमशः चित्रात्मक वर्णन किया हैं ।
शराब एक पैमाने से प्रारंभ हो कर गैलनों तक पहुंच जाती हैं । व्यक्ति को पता ही नही चलता कब उसका गुलाम रहने वाला शौक, उस पर हावी होते हुए उस पर राज करने लगा, व उसे अपनी दासता प्रदान कर गया ।
और तब होती हैं, सामाजिक, पारिवारिक, आर्थिक, चारित्रिक, नैतिक व दांपत्य जीवन स्तर की विनाश लीला प्रारंभ ।
दिन-दिन उक्त स्तरों से पतित होता हुआ महकश घर, परिवार, समाज संस्थान सभी स्तरों से पदच्युत हो जाता हैं। और आंतक का एक साया बन कर अपनी ही जीवन बगिया का स्वयं कंटक बन जाता हैं ।
जिस परिवार, समाज, को वह संवार कर गुलशन बना सकता था । अपनी महकशी में साथियों की ख्वाहिशों का श्मशान बना देता हैं ।
स्वयं तो अपना स्तर गिराता ही हैं, अपितु घर-परिवार की प्रतिभाओं को भी नष्ट कर उनमें कुंठा के काले साये पनपा देता हैं ।
बेटियां जहर खा जाती हैं, बेटे आवारगी में जेल पहुंच जाते हैं । स्त्री पतिता अथवा भिखारिन हो जाती हैं । किन्तु महकश को शर्म नही आती और कभी-कभी इसी महकशी के पथ पर मदनशीं ’’असमय,’’ अकाल मृत्यु को प्राप्त कर घर-परिवार को फना कर जाता हैं।
ऐसे में उसके जीने-मरने पर सबसे ज्यादा दुखी उसका परिवार ही होता हैं । उस परिवार के दर्द को बयाँ करते हुए कवियत्री ने मधुशाला से ’विष’ के प्यालों की मांग की हैं, जो कि महकश के परिवार का गम गलत कर सकें ।
आज हर तरफ एक होड़ सी मची हैं, जीवन में अग्रिम पंक्ति में स्थापित रहने हेतु, ’किन्तु’ यही आपाधापी होड़ा-होडी व्यक्ति के जीवन में कभी-कभी गहन निराशा बनके भी घर कर जाती हैं ।
आज हर तरफ एक होड़ सी मची हैं, जीवन में अग्रिम पंक्ति में स्थापित रहने हेतु, ’किन्तु’ यही आपाधापी होड़ा-होडी व्यक्ति के जीवन में कभी-कभी गहन निराशा बनके भी घर कर जाती हैं ।
कभी लोगों के भय से, कभी हार जाने, पीछे रह जाने, शर्म व हया, अथवा आलस्य या नीरसता के माने, कवि ने अपनी कविताओं में उन सभी नैराश्य कणों को क्षण भंगुरित मानते हुए जीवन-पथ पर सतत चलायमान रहने व सफलता के शीर्ष पर अपना परचम लहराने हेतु विविध आयामों से निराशा का खंडन करते हुए आत्मविश्वास के स्वर्ण कणों को पंक्ति - पंक्ति में चलित किया हैं ।
एक-एक पंक्ति व्यक्ति व व्यक्तित्व के निखार हेतु ओजस्विता का भंडारण हैं । कवि ने विभिन्न उदाहरणों द्वारा व्यक्ति की सुषुप्त-चेतना, अभिलाषा व उत्साह को जागृत करने का सतत प्रयास किया हैं जीवन अमूल्य हैं । इसे नैराश्य व खिन्न भाव से नहीं अपितु स्फूर्त व आशावान बन कर जीना चाहिये, व जब-तक जीवन में अपना लक्ष्य हासिल न हो, व्यक्ति को किसी भी, मील के पत्थर पर विश्राम नही करना चाहिये ।
सतत प्रयास व एकाग्रता लक्ष्य पर पहुँच कर अपना परचम लहराने हेतु बाध्य करती हैं । लोगों के भय से हार जाने की कुंठा से, या पीछे रह जाने की निराशा से निकल कर मात्र अपने कदमों को बढ़ाने व पारी को खेलने हेतु जागृत रहना ही व्यक्ति का ध्येय हो इस हेतु प्रेरित करती हैं । सौ छोटी हार एक बड़ी जीत मुकम्मल कर सकती हैं । इस बात को मध्यनजर रखते हुए । कविता ने उठने व चलने का आहवान किया हैं । जो कि, उनींदी चेतना व उत्साह को जाग्रत कर, जीवन पथ पर अग्रसर होते हुए मंजिलों को तय करने में सहायक हैं ।
निर्जीव विचारधारा में सजीवता का संचरण करते हुए उन्नति की ध्वजा को लक्ष्य के शिखर तक सुशोभित करने में प्रेरक हैं ।
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