साँझ "दरमियां तपिश और छाँव के", एक किताब जिसके हर पन्ने पर ख़्वाब, ख़्याल, मलाल, और कुछ सवाल लिखे हैं, तो वहीं कुछ पन्ने जज़्बातों, मुलाकातों और जिंदगी की सौगातों से सजे हैं।
कहते हैं ना बाहर चलने वाले दृश्य तब तक अपना वज़ूद नही रखते जब तक कि वो हमारे अंदर एक हलचल नही पैदा करते। जब बाहर का पूरा परिदृश्य हमारे अंदर एक चलचित्र बनाने लगता है तब कहीं जाकर क़लम पन्नों पर एक पैकर उकेरती है और सृजन होता है एक रचना का।
साँझ "दरमियां तपिश और छाँव के" कुछ ऐसी ही हलचलों से उपजती हुई अनेक रचनाओं का संगम है।
यह क़िताब, जिंदगी के इस धूप छाँव के सफ़र में ज़हन में उफ़ान भर रहे मनोभावों और ख्यालातों के समंदर से चुने हुए हर्फ़ों से सृजित रचनाओं के ज़रिए आपको उस अन्तरदृश्य से रूबरू कराने का एक ज़रिया मात्र है।