शेर के लिए माँस, गाय के लिए घाँस, पक्षी के लिए उड़ना, मछली के लिए तैरना उनकी आवश्यकता है और उनको जो चाहिये वो सब प्राकृतिक है और इतने में वे संतुष्ट हैं।
मनुष्य के पास भी शरीर है मगर शरीर की सारी जरूरतें पूरी हो भी जाएं तो भी वह चैन नहीं पाता है। क्यों? क्योंकि मनुष्य की असली जरूरत कुछ और ही है और वह इतनी प्यारी है कि उसके लिए कई भगतसिंह हँसते-हँसते फाँसी चड़ जाते हैं, जीसस सूली चड़ जाते हैं, सुकरात और मीराबाई जैसे लोग जहर का प्याला पी जाते हैं, बुद्ध और महावीर महल छोड़ जाते हैं। उसे मैं बेपरवाही कहता हूँ, जो प्रेम और आजादी के साथ आती है मगर बोध के बिना ना प्रेम हो सकता है और ना आजादी।
जब मनुष्य को बोध नहीं होता है कि वह कौन है? उसे क्या चाहिये? और जो चाहिये वह कैसे मिलेगा? तब वह अज्ञानवश; शरीर, संस्कार, प्रकृति, देश, काल, वातावरण और समाज के प्रभाववश उठी कामनाओं को ही अपनी जरूरत समझ लेता है और जीवनभर दर-दर भटकता रहता है, मगर कहीं भी चैन नहीं पाता है। क्यों? क्योंकि पानी का काम तो केवल पानी ही कर सकता है। भोजन का काम तो भोजन ही कर सकता है। वायु का काम वायु ही करेगी।
उसी प्रकार प्रेम, आजादी, मुक्ति, संतुष्टि, बोध और आनंद की जरूरत को कोई अन्य वस्तु कैसे पूरा कर सकती है। मगर अज्ञानवश मनुष्य इन्हें वस्तुओं, धन, पद-प्रतिष्ठा, भोग, स्त्री-पुरुष, सफलताओं जैसी चीजों में खोजता है।
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