चंद अल्फाज़ से हर्फ़ लेकर ज़िन्दगी क़यामत की दहलीज़ पर बाअदब खड़ी होती है। उस दिन जब ज़र्रे से आवाज उठती है कि तूने ताउम्र क्या किया? मुझे खुशी होगी कि मैं कहूँ कि मैं ताउम्र इंसान बना रहा। बकौल ग़ालिब -
"बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।"
बाअदब के अल्फाज़ में ज़िन्दगी के हर्फ़ हैं जिसे आपके सामने इस फैसले के लिए पेश करता हूँ कि क्या ये बाक़ायदा आप ही की सदा ही नहीं है? बेशक़ कलम ने इन्हें ज़ज़्ब कर सादे कैनवास पर बिखेरा है लेकिन दूर से आती सबा की मखमली सदाएँ आप ही की तो थीं -