मेरी बचपन से ही हिन्दी एवं संस्कृत साहित्य में रूचि रही है, रामचरित मानस की चौपाई सस्वर गाने से लेकर गीता एवं पंचतंत्र के श्लोकों का पाठ करते-करते ये बालमन ओर ज्यादा साहित्य को पढ़ने लगा। मीरा के पद्य से लेकर गिरधर की कुण्डलियों को जब पढ़ा तब कविताओं को पढ़नें में ओर अधिक आनंद आने लगा। मेंने कभी छंद एवं अलंकार पर ध्यान नहीं दिया, बस शब्दों में छुपे भावों को ही आत्मसात् किया।
कुमार विश्वास जी के गीतों से लेकर नई हिंदी की कविताओं को भी सुना एवं पाया की आदिकाल की कविताओं में जहाँ छंद प्रधानता होती थी वहीं आज की नई वाली हिंदी कविताओं में भाव की प्रधानता है शायद इसी कारणवश मेंने भाव प्रधानता को ही स्वीकारा।
ठीक छंदों की ही भाँति मेंने कभी किसी एक रस को नहीं चुना। जब कभी मन में जो भाव आये चाहे वो किसी भी रस के हो लिख दिये। मैं न तो कोई महान कवि हूँ एवं कोई सिद्धहस्त लेखक भी नहीं। मैं तो केवल एक प्यासा पथिक हूँ जो लिखकर अपनी प्यास बुझाना चाहता है। कविता लिखी और देखा नभ में चाँद अधूरा है तो कह दिया "चाँद अधूरा, कविता अधूरी।"
कभी वियोग की पीड़ा से कष्ट हुआ तो लिख दिया
"इक ख़्याल भर की छुअन से रूह सिहर जाती है।"