यही नाम अपनी इस पाँचवीं पुस्तक को देना चाहूंगी। दर्पण की भांति इसमें सबकुछ यथाचित से ही दिखता है। कुछ भी छिपा नहीं रहता, मन की व्यथा, सोच, पीड़ा सब कुछ तो पारदर्शी है। नारी के मन में, समाज में, परिवेश में जो कुछ भी घटित हो रहा है उसी भांति प्रतिबिंब दिखाता है कोई छद्म रूप नहीं, कोई मुखौटा नहीं। जिस भाव से कविता निकली है यह शाश्वत सत्य है समय, काल, देश सीमा से परे। अन्तर्मन के अनूठे व अछूते मौलिक भाव ! आशा करती हूँ, सुधिजनों का पर्याप्त समय व सहयोग मिलेगा।
आपकी
नीलम खेमका
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