“गजवा-ए-हिंद बनाम भगवा-ए-हिंद” भारत के वैचारिक, धार्मिक और भू-राजनीतिक संघर्षों का एक गहन और रोमांचक उपन्यास है—एक ऐसी कहानी जो सरहदों या सेनाओं से नहीं, बल्कि मानव मन, भ्रम और सत्ता की छिपी आग से लड़ी जाती है।
यह उपन्यास बताता है कि भारत पर सबसे बड़ा ख़तरा बाहरी आक्रमण नहीं, बल्कि अदृश्य विचारों का युद्ध है जहाँ धर्म कभी हथियार बनता है और कभी आश्रय।
कहानी की धुरी है डॉ. अविनाश राय, NIA के प्रमुख, जो “गजवा-ए-हिंद” नामक एक वैश्विक साजिश का सामना कर रहे हैं।
कट्टरपंथी संगठनों का उद्देश्य भारत को बंदूक से नहीं, बल्कि वैचारिक विभाजन, जनसांख्यिकीय युद्ध, व्हाइट-कॉलर टेरर, और मनोवैज्ञानिक प्रोपेगेंडा से अस्थिर करना है।
उधर, भारतीय दर्शन धर्म-शक्ति, कर्म-नीति और काल-चक्र इस लड़ाई का वास्तविक हथियार बनते हैं।
कहानी दिल्ली के तहखानों से इस्तांबुल की गलियों और संयुक्त राष्ट्र तक जाती है, जहाँ सत्य, न्याय और भारतीय सभ्यता की आत्मा की अंतिम परीक्षा होती है।
यह उपन्यास न किसी “गजवा” का समर्थन करता है, न किसी “भगवा” का प्रचार।
यह उन तीन अदृश्य शक्तियों को उजागर करता है जो आज भारत की आत्मा को खींचतान में झोंक रही हैं— विश्वास की आग, भ्रम की आग, और सत्ता की आग।
यह पुस्तक आतंकवाद, जासूसी और भू-राजनीतिक संघर्ष से आगे बढ़कर, भारत की उस शाश्वत चेतना की कहानी है जिसने हजारों वर्षों से हर आक्रमण को झेला और फिर भी जीवित रही।
“गजवा-ए-हिंद बनाम भगवा-ए-हिंद” एक चेतावनी भी है और एक आस्था भी— कि धर्म का वास्तविक युद्ध बाहर नहीं, भीतर लड़ना होता है।
यह हर उस पाठक के लिए है जो सत्य, न्याय, आधुनिक भारत की चुनौतियों, धार्मिक राजनीति, और सभ्यता की जड़ों को समझना चाहता है।
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