आपके शरीर का जन्म कान्यकुब्ज ब्राह्मण कुल में हुआ था। बाल्यावस्था ननिहाल में व्यतीत हुई। वहीं पर कुछ शिक्षा प्राप्त की। आरम्भ से ही आपके हृदय में ग्रामीण देवी देवताओं के प्रति श्रद्धा जागृत थी। विश्वास था कि मन्दिर में अथवा देवी देवताओं के दर्शन से विद्या प्राप्त होती है। बाल्यावस्था से ही किसी से उपदेश सुने बिना भगवान के नाम जप मंत्र स्मरण में विश्वास था आरम्भ से ही एक परमहंस अवधूत संन्त में श्रद्धा हो गई। जो नग्न ही घूमते थे। कोई वस्त्र न रखते थे। स्नान के पश्चात् खाक लगा के जल सुखाते थे उसे विभूति कहते थे।
पूर्व जन्म के संस्कारों से प्रेरित होकर भूमि, भवन, धन से वैराग्य हो गया और सब कुछ छोड़कर साधु वेष में विचरण करते हुए अनेकों कवितायें लिखी। एकान्त सेवी होने के कारण पद्य के साथ-साथ गद्य लिखना आरम्भ हुआ। लगभग सत्तर पुस्तकें छपी व्याख्यान के प्रति तथा गीत गान के प्रति श्रोताओं का आकर्षण बढ़ता ही गया। मान-प्रतिष्ठा, पूजा-भेंट से सदा विरक्त रहकर विचरण करते हुए आध्यात्मिक विचारों का समाजव्यापी प्रचार बढ़ता गया। लेकिन विचारों की प्रधानता से विचारक समुदाय की वृद्धि होती गई। परमहंस सन्त सद्गुरूदेव की आप पर बहुत कृपा थी। आपके शरीर का त्याग 10 जून सन् 1997 (ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी को दोपहर तीन बजकर चालीस मिनट पर हरिद्वार में हुआ)। आरम्भ में ब्रह्मचारी नाम से प्रसिद्ध थे फिर "साधु वेश में पथिक" नाम से कल्याण में लेख छपते रहे। पथिकोद्गार में एक सौ अट्ठाइस गीत, प्रकाशित हैं। दो सौ कुछ गीत अन्य पुस्तकों में प्रकाशित हैं। "पथिक पाथेय" अन्त में लिखी गई है।