देवव्रत नामक हस्तिनापुर का युवराज अपने पिताश्री की प्रसन्नता के लिए आजन्म कुँवारा रहकर सत्ताशीर्ष से स्वयं को विरत कर देने की प्रतिज्ञा कर लेता है और राष्ट्र की सेवा में स्वयं को खपा देता है | इसी कारण इतिहास में वह भीष्म पितामह के नाम से प्रसिद्ध हो जाता है | ठीक ऐसा ही उदाहरण मेवाड़ के राजवंश में महाराणा लाखा के पुत्र युवराज चूण्डा ने प्रस्तुत किया है | पिता के मन में आए विवाह के रंग को पढ़कर स्वयं के वाग्दान हेतु प्रस्तावित राजवंशी युवती के साथ अपने पिताश्री का विवाह करा देता है और परिणाम स्वरुप भावीनृपति बनने की संभावनाओं को सदा के लिए तिलान्जली दे देता है और माटी के प्रति सदा समर्पित रहता है | राजनीतिक उठापटक के क्रम में उसे देश से निष्कासन का अभिशाप भी भोगना पड़ता है | उसकी अनुपस्थिति में नई रानी से उत्पन्न लाखा के पुत्र महाराणा मोकल की हत्या और चूण्डा के भाई राघवदेव की हत्याओं से विचलित मोकल पुत्र महाराणा कुम्भा के आमंत्रण पर चूण्डा पुनः मेवाड़ में आता है और देश को निष्कटक करने में संलग्न हो जाता है |
मेवाड़ के उसी भीष्मपितामह के जीवन के कतिपय पहलुओं को इस ग्रंथ में ग्रंथित किया गया है | इतिहास साक्षी है कि अवसर आने पर भी श्री चूण्डा के वंशजों ने कभी भी मेवाड़ के सिंहासन को हथियाने का विचार तक नहीं किया | वंश प्रमुख की प्रतिज्ञाओं का परिपालन आज तक चूण्डावत क्षत्रिय समाज करता आ रहा है |
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