अध्यात्म में जब गुरुकृपा होती है, आत्मज्ञान होता है, सत्य स्वरुप प्रकट होता है तो अत्यंत रोमांचक स्थिति होती है। एक दिव्य आनंद होता है। इस स्थिति में भावपूर्ण विचार अभिव्यक्त होते हैं। ऐसी ही अभिव्यक्ति पद्य रूप में स्वामी चैतन्यानन्द जी द्वारा हुई है अपने गुरु भगवान मायानन्द जी से मिलने के उपरांत। ये कालखंड १९३० से १९५९ के बीच की बात है। "परमपद" पुस्तिका जैसी है वैसी ही रूप में प्रस्तुत है। इसकी भाषा सरल है, जो आम आदमी की समझ के अंदर है। आध्यात्मिक मार्ग के साधकों के लिए पूर्वाभास की तरह ये कार्य करेगी, सहायक सिद्ध होगी।
Rama Kant Sharma
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