सांख्य दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय चेतन और अचेतन का विवेक कराना है। 'पुरुष' पद चेतन का प्रतीक है। संसार में अनुभूयमान त्रिगुणात्मक अचेतमतत्त्व' प्रकृति का अंश है। इससे सर्वथा विलक्षण तत्त्व जो चेतन है, उसका अनुभव 'प्रत्येक व्यक्ति स्वतः अपने रूप में करता है। सांख्य का 'पुरुष' पद सर्वत्र चेतनमात्र का बोध कराता है । उसी को 'आत्मा' भी कहते हैं, यह शुद्धस्वभाव है। शुद्ध का अभिप्राय है – 'आत्मा' में किसी प्रकार के विकार का न होना । प्रकृति अशुद्ध है, क्योंकि वह परिणामिनी है। यद्यपि आत्मा 'प्रकृति' से प्रभावित होता है, 'सुख दुःख आदि' का अनुभव करता है, 'राग-द्वेष-काम-विचिकित्सा आदि के कारण व्याकुल होता है, 'क्षुधा तृष्णा आदि' इसको बराबर बेचैन करती है यहाँ तक कि 'प्रकृति' के प्रभाव में 'चेतन होता हुआ' भी वह अज्ञानी कह लाता है। फिर भी इन सब प्रकार की अवस्थाओं में आत्मा के 'वास्तविक स्वरूप' में कोई अन्तर नहीं आता । आत्मा में किसी प्रकार का विकार न आना ही उसकी शुद्धता है। यह स्वरूप उसका सदा एक समान बना. रहता है, इसकारण उसे शुद्धस्वभाव माना गया है।