जब हम राष्ट्र के निर्माण में शूद्रों के योगदान की बात करते है तो हमें सर्व प्रथम उस स्वर्ण युग की बात याद आती है जब कोई भी ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य अथवा शूद्र नहीं होता था। सभी एक उस परम पिता परमेस्वर की ही संतान हुआ करते थे। कोई भी वर्णवाद अथवा जातिवाद नहीं होता था।
यह सामाजिक विकार तो बहुत समय बाद तब आया जब मनुष्य ने मनुष्य की सीमाएं निश्चित कर दी और एक बड़ी आवादी को गुलामी का जीवनजीने को मजबूर कर दिया। दिया।
आज भी भवन निर्माण, सड़क अथवा फेक्टरी निर्माण हो, यहाँ तक कि मंदिर निर्माण तक का कार्य करने वाले को भी नीच जाति का ही समझा जाता है और मंदिर निर्माता को उसी मंदिर में प्रवेश से वंचित कर दिया जाता है जिसके निर्माण में उसका खून पसीना लगा है।
हम इस पुस्तक के माध्यम से राष्ट्र निर्माण में शूद्रों के योगदान के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे तथा यह जानने का प्रयास करेंगे कि क्या केवल और केवल शूद्रों ने ही राष्ट्र निर्माण में अहम योगदान किया है। अन्य वर्ण व जातियाँ तो अपनी जमींदारी, राज पाट संभालने तथा ऐशोआराम में ही व्यस्त रहे।
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