'मैं भागी नहीं थी माँ'

रहस्य
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मैं भागी नहीं थी माँ

रात की आवाज़ में कुछ खामोशी थी और उस खामोशी में एक घर बातें कर रहा था।लाली वहीं खड़ी थी लेकिन अंदर नहीं, बाहर ही थी।वैसे देखा जाए तो कुछ अंदर ही थी लेकिन सबने उसे बाहर ही समझा।

वह चुपचाप घुटनों के बल बैठ गई।अपनी बाँह को सिकोड़ कर पैरों के बीच घुसा दिए।उसके कान घर के अंदर की आवाज़ सुनने के लिए आतुर थे लेकिन अंदर बैठे मानस भी बिन आवाज़ की बातें कर रहे थे।वह झुंझला कर उठ खड़ी हुई और खेतों की ओर चल पड़ी।

गली में भौंकते कुत्ते उसे देखकर खामोश हो गए और दूर से सूंघने लगे।भांय भांय करती रात अपनी मर्ज़ी से चल रही थी।

लखन के खेत पर पहुंच कर वह दो पल ठिठक गई। खेत में बने कमरे की ओर उसके कदम बढ़ गए। दरवाजा बंद था लेकिन खिड़की खुली थी।

लाली ने खिड़की से झांकने की कोशिश करने लगी,लेकिन खिड़की जरा ऊंची थी।वह वैसे ही खड़ी रही और फिर घुटने के बल बैठ गई।अपनी बाँहों को पैरों में घुसा लिया।दर्द तेज था।

आधा घंटा बीत गया,वह ऐसे ही बैठी रही।

तभी दरवाजा खुला।पजामे का नाड़ा खोलते हुए लखन बाहर आया।

वह वहीं बैठी रही वैसे ही।

लखन दीवार की ओट में हल्का होने लगा।वह तब भी वैसे ही बैठी रही।लखन ने उसे अनदेखा कर भीतर जाकर दरवाजा जोर से भेड दिया।

झटाक की आवाज़ से रात भी चौंक उठी।कुत्ते गला फाड़ कर भौंकने लगे।

उसकी आँखों में एक आँसू निकल कर जमीन में समा गया।खेत में सफेद पाले की चादर बिछने लगी,ठंड से मिट्टी भी जम गई हो जैसे।उसके तलवों में नीला लेप जैसा कुछ लग गया।वह सिर झुकाए अपने पैरों को देखती रही।


आसमान में उड़ते चमगादड़ बीच -बीच में उसके करीब से निकल जाते हैं ऐसा लग रहा था जैसे उसे छेड़ रहे हो।रात अब अपना रंग खोने लगी थी और सूरज सुबह के साथ आने की तैयारी करने लगा।

गाँव की गलियों में गाय और भैंसों के रम्भाने की आवाज़ आने लगी।सुबह की सुगबुगाहट के साथ गाँव भी जगने लगा।


सरकारी नलों पर दातुन करते आदमी और पानी के भरती औरतों के बीच एक मुद्दा गरम था।जितने मुँह उतनी बातें।लाली की कहानी सबकी जुबान पर थी।

वह सबसे छिपकर वापस घर आ गई और एक कोने में समा गई।माँ वहाँ आई लेकिन मुँह मोड़कर चली गयी।

बाबा दो दिन से भूखें हैं वह उनके लिए रोटी बनाना चाहती है लेकिन इजाजत नहीं।बेबस लाली अपनी घुटनों को मोड़कर बैठ गई और अपने हाथ पैरों में घुसा लिए।दर्द तेज था।

सड़क से आते कुछ लोग उसके घर के दरवाजे पर रूकते और बाहर से उसके बारें में पूछते।

बाबा बस हाथ जोड़ लेते।

दिन बीत रहे थे लेकिन गाँव में लाली की बात अब भी चलती रहती।दिन भर खुद को सबकी नजरों से बचाए रखती लाली और रात में लखन के कमरे के बाहर जाकर बैठ जाती।

सब चल रहा था लेकिन उसका घर था जो कहीं थम गया था। वहाँ कुछ चेहरे जिन्दा थे लेकिन मुर्दा लग रहे थे।वह भी खामोशी से उनके साथ थी ।

लाली की आँखों में पिछली रातों के सपने आने लगे।वह देख रही थी खुद को दौड़ते हुए।शौक बहुत था न उसे दौड़ने का।लेकिन गाँव में लड़कियों को इजाजत कहाँ थी दौड़ने की।

लेकिन उसकी माँ उसे इजाजत मिली थी दौड़ने की पथरीले रास्तों पर।उसे इजाजत दी उड़ने की लेकिन जमीन पर ताकि लाली अपने सपनों को जी सके।उसके चारों तरफ मोरपंखी से सपने बिखेरे रहते जिन्हें वह अपनी कुर्ती की जेब में भरती रहती।

माँ उसकी जेब में अक्सर बटन लगा दिया करती ताकि उसके सपने बिखरे न।

बाबा को उसके पैरों में मिट्टी लगी देखनी बिल्कुल पसंद नहीं थी इसलिए रंग बिरंगी जूतियाँ उसके लिए लेकर आते रहते।

वैसे तो बाबा मजदूर हैं लेकिन उसके तो राजा हैं न!

बेजुबान लाली ने अपने पंखों को फैलाया और आसमान का रूख कर लिया।उसके पंख हवा के साथ चलने लगे।वह खिलखिलाने लगी।उसकी हँसी बादलों से छन कर पूरे गाँव में फैल रही थी।

खनकती सी हँसी…।अक्षर उसके साथ साथ उड़ते।

अचानक से उसकी हँसी टूट गई वह सिसक कर रोने लगी।उसकी सलवार से खून बह रहा था ।वह माँ को चिल्ला कर बुलाना चाहती थी लेकिन गले में निकलती उन आवाजों को बस वही सुन पाई।

उस दिन खेत में सर्दी बहुत थी।

बाबा ने जूते पहनने छोड़ दिए।उसकी रंगबिरंगी जूतियों को चुपके से देख लेते,उसे आवाज़ देते।वह सामने खड़ी रहती लेकिन उसकी ओर देखते ही नहीं।

वह चीखती लेकिन उसकी चीखें उसके गले में ही घुट जाती।उसे इजाजत भी कहाँ थी चीखने की।


लाली कोने में पड़ी चुपचाप रोती रही।माँ उसके करीब आती लेकिन बिना गले लगाए वापस चली जाती।माँ अब उसे चुप भी नहीं कराती।क्या माँ की आँखों ने उसे देखना छोड़ दिया।

माँ भी अब गूंगी हो गई है बिल्कुल उसकी तरह।


उस दिन गाँव में फुसफुसाहट और तेज हो गई।सब उसके घर की ओर चले आए और बाबा के सामने गाँव वालों ने उसकी जूतियाँ फेंक दी।लोग नहीं चाहते थे कि उनकी बेटियाँ लाली की तरह उड़ जाए।बाबा की आँखों से आँसू तेजाब बनकर बहने लगे।


बाबा की आँखों से बहते तेजाब को देखकर पता नहीं क्यों बादल खूब बरसे।

तीन दिन तीन रात बारिश होती रही।नदी उफन कर गाँव में आ गई और लोग छप्परों पर।

लाली भी माँ के साथ छप्पर पर बैठ गई।गाँव के लोगों को समझ आ गया था कि बारिश की वजह भी वही है।सबने माँ को कोसा और उसे गालियाँ दी।

माँ कुछ नहीं बोली।और लाली तो बोल ही नहीं सकती थी बचपन से बेजुबान जो थी।उसने बस आसमान की ओर देखा।बारिश कम होने लगी।

काले बादलों ने अपना रंग बदल कर नीला कर लिया।

नदी की रेत पानी के साथ बह गई।

रेत पर बहुत से निशान नजर आने लगे।

लाली उन निशानों के पीछे चलने लगी और एक जगह जाकर बैठ गई।


उसने अब भी घुटने मोड़े हुए थे और हाथ पैरों में घुसाए थे।दस दिन पहले यहाँ पर ही तो सोई थी वो।सोने से पहले उसके शरीर पर जोंक रेंग रही थी जिसे हटाने के लिए लाली ने लखन के गले से ताबीज खींच लिया।लेकिन जोंक अब भी उसके शरीर के भीतर जा रही थी।

वह सोई तो नहीं थी लेकिन उसने उसे सुलाया था।उसके घुटनों को मोड़कर ,उसके हाथ पैरों में दे दिए।उसकी सलवार में लगा खून अब भी गीला था।रेत उसके ऊपर बिछ गई।

गाँव के लोगों के साथ माँ भी वहाँ आई।लाली के चेहरे पर लगी चमड़ी गल चुकी थी।माँ उसके जेब के बटन खोल रही थी और जोर-जोर से रो रही थी।लाली ने माँ के आँसुओं को अपनी उंगलियों से साफ करने के लिए हाथ बढाया लेकिन मुठ्ठी खुली ही नहीं।

बाबा उसके पैरों से मिट्टी हटा रहे थे।उसकी जूती में अनगिनत बिच्छू नजर आए।

"माँ ,मैं भागी नहीं थी….माँ भागी नहीं थी माँ!" लाली जोर से चिल्लाई।इस बार माँ ने उसकी आवाज़ सुनी और अपने सीने को भींच लिया।


लाली की नजर अपनी मुठ्ठी पर गई।चमड़ी उतर चुकी थी लेकिन मुठ्ठी कसी थी।लाली ने उसे अपनी हथेली में कस लिया और लखन के खेत की ओर चल पड़ी।उसने पीछे मुड़कर देखा माँ उसके साथ थी।

लोगों को उसकी सलवार पर लगे खून के छींटे, लखन के पजामे पर नजर आने लगे।

दिव्या शर्मा

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