JUNE 10th - JULY 10th
उस सुबह जब मैं नींद से जगा तो बहुत अजीब सा लग रहा था। वो अजीब होना इतना अजीब था कि वैसा मैंने कभी महसूस ही नहीं किया था। ऐसा भी नहीं कि मेरी आँखें खाबिंदा थी मुझे सब दिखाई पड़ था – अपनी पंखड़ियों पर जम कर काली पड़ चुकी धूल के साथ समझौता कर चुका छत से लटका अपनी ही धुन में घूमता सफ़ेद पंखा,खिड़की दरवाजों की झिरियों से दखलअंदाजी कर चुकी सूरज की दमकती किरनों की बदौलत बेमानी हो चुकने के बाद भी अपने वजूद के लिए लड़ता मंद सी रोशनी देता होल्डर में अटका नाइट बल्ब, साल दर साल बदल दिये जाने वाला इस एहसास से बेखबर कि एक दिन रद्दी का टुकड़ा बन वो कोड़ियों के दाम बिक जाएगा इतरा कर लहरता झूलता कलेंडर और चंद कल पुर्जों के बूते पर चलती वक़्त को अपना मुलाज़िम मानने के वहम पाले बैठी दीवार पर ठुके एक के कील के सहारे टंगी हर पल मुझे घूरती दीवार घड़ी।सब तो वैसा ही था तो फिर बदला क्या था?क्यूँ मुझे इतना अजीब लग रहा था? एक पल को मुझे ऐसा लगा कहीं मैं काफ्का की कहानी का किरदार तो नहीं बन गया हूँ –कीड़ा तो नहीं हो गया हूँ? मैंने बिस्तर पर पड़े पड़े ही अपने पाँव हिला डुला के देखे वो वहीं थे वैसे ही थे दो ही थे लेकिन और दिनों के मुक़ाबले आज उन्हे बिस्तर से उठ भागने की कोई जल्दी नहीं थी। हाथ दिल पर रखा-धड़कन थी,नब्ज़ टटोली –वो भी फड़क रही थी,हाथ नाक के नजदीक ले जा कर साँसे महसूस की वो कमबख्त तो अभी भी बराबर से अपनी रवानी पकड़े हुए थी।इसका मतलब मैं ज़िंदा था, तो फिर क्यूँ मैं खुद का होना महसूस नहीं कर पा रहा था?क्या मैं वही था जो हूँ या मैं कोई और था?कुछ तो था जो अलग था पर वो था क्या?कुछ तो था जो उस रोज़ नहीं था। मैं उठा वाश बेसिन की ओर लपका, नल चला कर मुंह धोया, आईने में चेहरा देखा-नाक नक़्श वही मगर आँखें? मेरी आँखों में एक मामूली सा नीला पन था जो पहले कभी ना था और पुतलियाँ एक दम पथराई सी बेजान। ये हुआ क्या था? मैंने कई दफा पानी के छीटें आँखों में मारे इससे वो मिचमीचाई तो जरूर पर ना तो उनकी मुर्दनी गई और न ही वो नील कहीं छलका।मुझे घबराहट सी होने लगी मैं दौड़ के कमरे में वापस गया। मेज़ की दराज़ से आई टोन निकाली बिस्तर पर लेट दो दो बूंदें दाईं बाई दोनो आँखों में डाली और आँखें कस के मीच ली। हल्की सी चिरमिराहट तो जरूर हुई और आँखों के के कोने से होकर बहते हुए सर्द पानी को मेरे कानों ने भी महसूस किया। कुछ पल मैं ऐसे ही पड़ा रहा।फिर धीरे से पलकें खोली सब पहले की तरह ही साफ दिखाई दे रहा था मैंने हिम्मत जुटाई बिस्तर से उठकर वाश बेसिन की ओर गया आईना देखा- दिल दहल गया।आईने के और नज़दीक गया पलकें झपकाई, भंवे सिकोड़कर देखा पुतलियों में ज़रा भी हरकत न हुई ना वो फैली ना वो सिकुड़ी- पत्थर की तरह अपनी जगह पर जड़ी रही।माथे की सलवटें बढ़ गई पसीने की एक ठंडी धार कान के पीछे से रेंगती हुई गर्दन से होती हुई रीढ़ की हड्डी को सिहराती आगे निकल गई। आखिर ये हुआ क्या था? मैं फिर से कमरे की दौड़ा फिर से मेज़ का दराज़ खोला उस डाक्टर की पर्ची निकाली जिससे पिछली दफा आँखों की जांच कारवाई थी।फोन मिलाया घंटी जाती रही फिर मिलाया घंटी फिर से गई-नतीजा वही का वही।ओ. पी. डी. का वक़्त देखा 10 से 1.30 और अभी तो 7.45 ही बजे थे। फिर से आईने की ओर दौड़ा- गौर से देखा नीलापन बढ़ा दिखा पुतलियाँ वैसे की वैसे एकदम मुर्दा-ये देख कोई याद आया;पत्थर की एक आँख वाले एक दूर के रिश्तेदार-मेरी दोनों की दोनों आँखें उनकी एक आँख जैसी।चक्कर सा आ गया, मतली सी होने लगी, हाथ की हथेलियाँ पाँव के तलवे जैसे बर्फ में लग गए। बिस्तर पर आकर पड़ गया।एक ख्याल आया-मैं मर तो नहीं रहा था या मर तो नहीं गया था।तभी एक आवाज़ सुनाई दी- अभी ज़िंदा हो।मैं चौंक के उठ गया– किसकी आवाज़ थी ये?कौन बोला था-फिर से वही आवाज़ सुनाई दी-ये मैं हूँ।मैं कौन?कौन मैं?सिर्फ पंखे की कीर कीर और घड़ी की टिक टिक के अलावा कुछ ना सुनाई दिया।क्या मुझे वहम हुआ था? या सचमुच मैंने कोई आवाज़ सुनी थी।ये वहम नहीं है-फिर से वही आवाज़ सुनाई दी। मैं उठ खड़ा हुआ-कमरे का दरवाजा कमरे की खिड़की सब खोल के देखा- कोई भी तो नहीं था।फिर कौन बोल रहा था?बाहर देखोगे तो नहीं पाओगे-फिर वही आवाज़ आई।ये क्या हो रहा था-मैं कहीं पागल तो नहीं हो गया?अभी तक तो हुए नहीं मगर... -हो कौन?सामने आओ!!! मुझे सिर्फ सुनो-बस सुनो।मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा-समझना ही तो है।क्या समझूँ?यही तो समझना है।फिर एक चुप्पी पसर गई।मैं बदहवास सा पगलाया सा बिस्तर पर बैठा अपनी आती जाती सांस को सुन रहा था।बस इतना ही तो ध्यान देना है।तुम हो कौन?तुम लोगों को हमेशा हर शय का नाम क्यूँ रखना होता है?बस एक नाम दिया और चल दिये- अपना काम आसान कर लिया।मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ?कुछ तो बताओ अपने बारे में।मैं वही हूँ जो तुम्हें तुम्हारे बारे में बताती है।अपने बारे में जान लो मेरे बारे में खुद जान जाओगे।मतलब, फिर भी कुछ तो कहते होंगे तुम्हें?हाँ तुम लोगों ने नाम दिये है-तुम्हारी जितनी ज़बाने उतने नाम,मतलब सब का वही,पर फक्त नाम तक ही रह जाता है सब,समझा कोई नहीं।इसका मतलब तुम मेरी रूह??...हाँ हाँ वही। पर तुम तो अंदर होती हो...आज बाहर कैसे?क्योंकि तुम लोगो को आदत है सिर्फ बाहर का सुनने की , शायद तुम्हें उसी पर यकीन आता है शायद तुम्हें वही सच लगता है।अंदर का कभी सुना होता तो आज .....। मैंने तुमसे भी ना जाने कितनी दफा बात की है।पर तुमने सुना नहीं या सुनना ही नहीं चाहा। कब की तुमने मुझसे बात ? अच्छा याद करो ज़रा। जब हर दफा कोई भी ऐसा काम करने से पहले जो तुम्हें नहीं करना था तुम्हारा हाथ एक बार को आगे बढ़ने से पहले रुका था या नहीं?जब कभी उस राह पर चलने से पहले जिस पर तुम्हें नहीं चलना था एक बार तुम्हारे कदम ठिठके थे या नहीं?या फिर वो बात कहने से पहले जो तुम्हें नहीं कहनी थी तुम्हारी ज़बान लड़खड़ाई थी या नहीं? कभी सोचा क्यूँ तुम्हारा बढ़ता हाथ एक बार रुका,क्यूँ तुम्हारे उठते कदम ठिठके और क्यूँ तुम्हारी ज़बान लड़खड़ाई?पर तुम माने?नहीं ना? मैं सोच में पड़ गया। एक एक करके सब सब मंज़र नज़रों के सामने नुमाया हो गए।मन पछतावे से भर गया।हाँ हर दफा मेरे साथ ऐसा हुआ तो था मगर....तुमने मुझे रोका क्यूँ नहीं? मैंने हर दफा तुम्हें रोकने की कोशिश की पर तुम.... और कल तो तुमने हद ही कर दी। मेरी भी बर्दाशत की एक हद है-कब तब बोझ ढोयूं कितना मैल ओढ़ूँ।मैं इस कमरे का पंखा नहीं हूँ जिसकी धूल आज तक नहीं झाड़ी गई....तुम्हें तो फर्क़ पड़ता नहीं। जब फर्क पड़ता नहीं फिर मैं चाहे अंदर होयूं या बाहर...बाहर कितना खुलापन है और तुम्हारे अंदर कितनी घुटन... इसलिए मैंने ये फैसला किया है कि अब से मैं अंदर नहीं... मगर तुम ऐसा कैसे कर सकती हो? मैं अभी ज़िंदा हूँ… अच्छा ठीक से सोच लो क्या सचमुच ज़िंदा हो?खैर जाने दो सोचने से इसका जवाब नहीं मिलेगा; सोचने से कोई नहीं जान पाया तो तुम तो...तो कैसे जानूं ? ये जवाब मेरे बाहर रहते नहीं मिलेगा और अंदर का तुम सुनोगे नहीं...नहीं मैं सुनूंगा सब सुनूंगा अब सिर्फ तुम्हारी ही सुनूंगा पर तुम बस एक वापस आ जाओ...मैं गिड़गिड़ाने लगा,घुटनों पर आ गया,पसीने से भीग गया फिर अचानक से मुझे गश सा आने लगा आँखें बंद होने लगी और मैं वहीं...कुछ देर बाद जब मैंने आँखें खोली तो मैं बिस्तर पर पड़ा था। मेरा तकिया मेरे पसीने से भीगा चुका था और मेरी बनियान गीली होकर बदन से चिपकी हुई थी। पंखा किर किर रहा था, कलेंडर लहरा रहा था और घड़ी घूर रही थी। मैं उठा सीधा वाश बेसिन की दौड़ा। आईना देखा-आँखों से नीला पन नदारद था,पुतलियों में जान थी। मैंने मुंह धोया फिर से आँखें देखी-राहत की सांस आई सब ठीक था।वापस बिस्तर पर आकर बैठ गया।कितना अजीब सा ख्वाब था मगर कितना सच.......खैर जो भी हो शुक्र है ख्वाब ही था हक़ीक़त नहीं।अभी मैं ये सब सोच ही रहा था कि फोन बजा। हैलो कौन? जी आपका ही फोन आया था...मेरा फोन? आप कौन बोल रहे हैं ? चंदर आई हॉस्पिटल से आप ही ने फोन किया कोई आठ बजे के आस पास बजे.....मिसड कॉल में तो यहीं नंबर दिख रहा है....ये सुनते ही मेरे होश उड़ गए और मैं धम से बिस्तर पर गिर गया और फोन से आवाज़ आती रही...हैलो....... हैलो..............हैलो......................
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