चरित्रहीन कौन

वीमेन्स फिक्शन
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ट्रेन के जनरल डब्बे में तरह-तरह के लोग, उनकी अतरंगी बातें, बच्चों का शोर, खाने की खुशबू, राजनीति पर वाद-विवाद करते कुछ अंकल, सामने लेटे अंकल के खर्राटों का शोर... कुछ भी मेरे मन को करुणा चाची से अलग करने में सफ़ल नहीं हो रहा था। मैं ट्रेन से पहले, उन्नाव के अपने छोटे से गाँव अकबरपुर पहुँच जाना चाहती थी।

माँ ने आज सुबह ही फ़ोन पर चाची की बीमारी की खबर दी थी. बोल रहीं थीं, डॉक्टर ने जवाब दे दिया है। कभी भी, कुछ भी हो सकता है। इतना सुनते ही शाम को पतिदेव ने आनन-फानन में मुझे ट्रेन में बैठा दिया। हाँ, उन दिनों आज की तरह महीनों पहले टिकट बुक नहीं करानी पड़ती थी। पहले आओ, पहले पाओ की तर्ज़ पर सीट मिल जाया करती थी।

बाउजी जी के सरकारी ओहदे के कारण हमारे परिवार की सोच गाँव के अन्य परिवारों की तुलना में थोड़ी बेहतर थी। हमारे घर में अनुशासन और शिक्षा का विशेष महत्त्व था।

वहीं दो घर छोड़ कर मेरे बड़के दादा का परिवार भी रहता था। उनके तीन बेटे थे। घर में सब कुछ अच्छा था सिवाय सबसे छोटे महेंद्र चाचा के। लोग कहते थे की वो दिमागी तौर पर थोड़ा कमजोर थे।

परंतु अगर मैं अपने शब्दों में कहूँ तो वो दिमागी कमजोरी की आड़ में कुछ ज्यादा ही सयाने थे। एक तो वो कोई काम धाम नहीं करते थे, ऊपर से पूरे दिन गाँव में घूमते और आती-जाती लड़कियों पर छींटाकशी करते। अक्सर शाम को घर में शराब पीकर आते और खूब बवंडर मचाते और बड़के दादा का परिवार हमेशा उनकी गल्तियों पर पर्दे डालता रहता। जिस देश के लोग धरतराष्ट्र से कुछ सीख न पाए, उस देश के बेटों पर लगाम लगाना बड़ा मुश्किल है।

खैर, असली कहानी तब शुरू हुई जब महेंद्र चाचा की शादी करुणा चाची से हुई। मैं उस समय यही कोई दस-ग्यारह वर्ष की रही हूंगी और करुणा चाची यही कोई बीस - इक्कीस वर्ष की। करुणा चाची बहुत खूबसूरत, सभ्य और सुशील महिला थीं। बातचीत में बहुत नम्र। शायद बारहवीं पास थीं। पर हर काम में, घर के रख-रखाव में बड़ी कुशल थीं। बस एक ही कमी थी कि वो गरीब परिवार से थीं। तभी तो उनके घरवालो ने बिना कुछ देखे समझे उनका ब्याह उनसे दस साल बड़े और निखट्टू महेंद्र चाचा से करवा दिया था।

मैं अक्सर शाम को नई नवेली चाची के पास खेलने चली जाती। वो मेरे साथ घंटों बातें करतीं और खेलतीं। उनके माथे की छोटी लाल बिंदी, आँखों का गहरा काजल, और माँग में सजा गाढ़ा लाल सिंदूर देख ऐसा लगता जैसे सुबह-सुबह कमल की कली खिली हो…..एकदम पाक, पवित्र, निश्छल।

कुछ दिनों बाद, अचानक चाची के बदन पर नीले निशान दिखने लगे। जिसे वो अपनी साड़ी के पल्लू से छिपाने की भरसक कोशिश करतीं। एक दिन कोई बात कहते कहते वो पानी लेने को जैसे ही उठीं, तो अहा की आवाज़ के साथ लड़खड़ा गईं। मैने जल्दी से उन्हें संभाला,“चाची, आप बिना किसी गलती के चाचा से मार क्यों खाती हैं?? आप उनका विरोध क्यों नहीं करतीं ?? अपनी माँ के पास क्यों नहीं चली जातीं ??", उनकी हालत देख कई दिनो से मेरे अंदर उबल रहा ज्वालामुखी फूट गया।

चाची ने छलक आए आंसुओं को अपनी धोती के कोने से पोंछ, बड़े प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा, "बिटिया, लड़कियों के दो घर होते हैं - एक मायका और एक ससुराल। मायके वालों ने तो हमारा दान कर दिया और हम भी चौखट लाँघ कर यहाँ आ गए…..अपने "दूसरे घर"। अब हम यहाँ से कहाँ जाएंगे??? अब यहाँ से अगर जाएंगे तो कंधो पर ही जाएंगे। हमें तो बचपन से यही सिखाया गया है।"

मुझे समझ नहीं आता, हम अपनी बेटियों की सोच को इतना लाचार कैसे बना देते हैं कि वो कीचड़ में खिलने की बजाय....कीचड़ में धँसने लगती हैं।

वक्त अपनी चाल से चल रहा था। पढाई में व्यस्तता के कारण चाची के पास अब मेरा आना-जाना कम हो गया था। एक दिन स्कूल में किसी लड़की ने मुझसे कहा, “शिल्पी, मेरी मम्मी कह रही थीं कि तेरे महेंद्र चाचा को एड्स हो गया है, वो भी अपनी बीवी के कारण।” उसकी बात सुन मैं घबड़ा गई ..."पता नहीं"... बस इतना ही मेरे मुंह से निकला।

उस रोज़ घर लौटते समय अचानक दूर से मैंने देखा महेंद्र चाचा, चाची को बालों से घसीट कर बाहर खींच कर ला रहे थे। तभी पीछे से बड़के दादा की कड़कड़ती आवाज़ मेरे कानो में पड़ी। चरित्रहीन है ये। इसे घर से ही नहीं, गाँव से भी निकल दो। वरना ये सारे गाँव को बीमार कर देगी। करुणा चाची, महेंद्र चाचा के पैर पकड़ रही थीं। हमने कुछ नहीं किया। हमें घर से न निकलो और बड़के दादा पीछे से चिल्ला रहे थे "महेंद्र, इसकी एक न सुनना। कुलच्छनी है ये...चरित्रहीन है। गरीब समझ कर इसके माँ बाप पर एहसान कर हम इसे ले लाए थे। पर इसने तो हमारे ही कुल का नाम खराब कर दिया। अरे डायन भी अपना घर छोड़ देती है, पर इसने तो अपने पति को ही खाने कि तैयारी कर ली।"

करुणा चाची, बेचारी सबके हाथ पैर जोड़ रही थीं। अपने बेगुनाही की दुहाई दे रही थी। आंसुओं, दर्द, पीड़ा से भरा उनका चेहरा देखा नहीं जा रहा था। पर उस दिन शायद गाँव के सभी लोग गूंगे-बहरे हो गए थे, जो वहाँ खड़े होकर सिर्फ़ तमाशा देख रहे थे और अफसोस कि उनमें से एक मैं भी थी….

तब मेरे बाउजी और गाँव के कुछ लोगों ने उनको रोका और न जाने उनके कान में ऐसा क्या कहा...कि बड़के दादा शांत हो गए और चाची, वहीं ज़मीन पर पड़ीं हिचकियाँ लेती रहीं।

मैं उस रात और आने वाली कुछ रातें सो नहीं पाई। समाज और उसके बनाए खोखले नियम कानूनों को समझने की नाकाम कोशिश करती रही।

गाँव में पढाई की सुविधा न होने के कारण मुझे आगे की पढाई के लिए लखनऊ जाना था। जाने से पहले मेरा मन नहीं माना और मैं एक दिन माँ को बिना बताए करुणा चाची से मिलने चली गई। मुझे देख पहले तो वो अपने होंठों को तिरछा कर मुस्कुराईं पर फिर मुस्कुराहट के कारण होंठों के इर्द गिर्द उभर आई रेखाओं को आँखों में उमड़ आए बादलों के पीछे छिपा दिया।

“चाची कैसी हो ??”

“हम ठीक हैं बिटिया। पर तुम्हारे चाचा बहुत बीमार हैं। उठ भी नहीं पाते। बहुत तकलीफ है इनको। हरदम या तो छत की ओर निहारते रहते हैं या हम को टुकुर-टुकुर देखा करते हैं। कमजोरी इतनी है कि बोल भी नहीं पाते। कुछ कहना चाहते हैं शायद। पर हम अभागे समझ भी नहीं पाते”, चाची वहीं चारपाई पर लेटे चाचा के माथे पर एक निस्वार्थ माँ की तरह हाथ फेरते हुए बोल रही थीं और मैं उन्हें एकटक निहार रही थी|

“किस मिट्टी की बनी हो चाची??? इन सबने आपकी कद्र कभी नहीं की। ये लोग आपको घर का सदस्य तो छोड़ो, घर की धूल भी नहीं समझते और आप इन्हीं के बारे में सोच रही हैं”, कहते-कहते मैं रो पड़ी।

चाची ने लाड़ से मुझे अपने करीब बिठाया, ”हम यहाँ ठीक हैं बिटिया….तुम हमारी चिंता मत किया करो…..अम्मा बता रहीं थीं कि तुम पढने के लिए शहर जा रही हो। काका ने ये काम बहुत अच्छा किया है। ख़ूब पढ़ना। शिल्पी बिटिया, जब भी आना तो मिलने जरूर आना। तुमसे पता नहीं क्यों पुराने जन्म का सा कोई नाता लगता है…..आ जाती हो तो थोड़ा मन बहल जाता है”, चाची रेगीस्तानी निगाहों से कुछ देर तक मुझे अपलक देखती रहीं।

लगभग एक-डेढ़ साल बाद, हॉस्टल में माँ से पता चला था कि महेंद्र चाचा नहीं रहे। तभी माँ ने बताया था कि अब चाची की भी तबियत ठीक नहीं रहती।

एक बार घर आई थी, तो उनसे मिलने गई थी। उनको देखा नहीं जा रहा था। कम उम्र में ही उम्रदराज़ दिख रही थीं। सूती धोती पहने, वहीं कमरे में एक पुराने से बक्से को खोले बैठी थीं। जाने क्या ढूंढ रही थीं???

“करुणा चाची….”

“कौन….”

“मैं”

"शिल्पी बिटिया...तुम कब आई??? हमको तो खबर ही नहीं लगी…. बड़े सालो बाद आई हो इस बार….”, चाची ने पीछे मुड़ते हुए कहा|

“नहीं चाची, आती तो थी, पर जल्दी ही वापस चली जाती थी….इस बार मन नहीं माना तो आपसे मिलने चली आई”, वहीं चाची के पास बैठते हुए मैंने उनसे कहा।

"अच्छा रहा बिटिया तुम आ गईं। तुमसे ढेर बात करनी थीं| पता नहीं...इसके बाद कभी मिलना हो भी या नहीं...."

"ऐसे क्यों कहती हो चाची", मैंने चाची का हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहा।

“बिटिया, सच कह रहे हैं…. तुम्हीं देखो….शरीर कैसे गलता जा रहा है हमारा। यहां के डॉक्टर कहते हैं, हमको तुम्हारे चाचा वाली बीमारी हो गई है...'एड्स'। तुमको आज अपना सच बताना चाहते हैं। बिटिया….यहाँ सभी हमें चरित्रहीन समझते हैं, पर हम चरित्रहीन नहीं हैं। हमने सारी जिंदगी तुम्हारे चाचा के सिवाय किसी दूसरे मर्द की ओर आँख उठा कर भी नहीं देखा। हम उतने ही पवित्र हैं, जितनी गंगा मैया…”, इतना कहते ही करुणा चाची के अंदर दबा सालों का सैलाब दर्द बनकर बह गया।

मैंने उन्हें अपने सीने से चिपका लिया और रोने दिया। वो देर तक सिसकियां लेती रहीं और बार-बार हिचकियां लेकर बस एक ही बात कहती रहीं...हम चरित्रहीन नहीं हैं बिटिया।

“मैम, उन्नाव आ गया….आपको यहीं उतरना था न", एक सहयात्री ने मुझे जगाते हुए पूछा।“हाँ, मुझे यही उतरना है…..जी बहुत-बहुत शुक्रिया”। मैं समान लेकर गाड़ी से उतर गई। सामने ही बाउजी खड़े थे। गाड़ी में समान रखा। मैं और बाउजी दोनो ही खामोश थे। उनकी खामोशी किसी अनहोनी की ओर इशारा कर रही थी। मैं घबड़ाहट में अपने नाखूनों को कुरेदे जा रही थी। अनहोनी के डर से मेरा गला सूख रहा था।

“करुणा बहुत अच्छी थी। हमेशा बड़ों की सेवा सुश्रुषा में लगी रहती। पर अफसोस कि किसी ने उसकी कदर नहीं की।

“थी…. मतलाब…” मैं बुदबुदाई, मेरे कानो में केवल थी शब्द गूंज रहा था। बाकी बाउजी क्या बोल रहे थे….. मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था।

"हाँ बेटा, कल रात उसने आखिरी साँस ली", बाउजी ने आँखों के कोर को पोंछते हुए कहा।

गाड़ी थोड़ी देर में चाची के घर के बहार रुकी।

मैं भारी कदमो से अंदर बढ़ी। करुणा चाची ज़मीन पर सो रही थीं…. बिलकुल शांत। आज भी वो मुझे उतनी ही मासूम लग रही थीं....जितनी पहली बार देखने पर लगी थीं। मैं वही उनके पास बैठ गई और उनका सर सहलाने लगी। सोचने लगी अच्छा ही हुआ चाची चली गई। नहीं, असल में उन्हें नरक से मुक्ति मिल गई थी। जिसका बोझ बिना किसी गुनाह के उन्होंने सारी जिंदगी ढोया था।

"मेरी बहू बहुत अच्छी थी। इतने ज़ुल्मों के बावज़ूद उसने पलट कर कभी जवाब नहीं दिया और न ही घर के बड़ों की सेवा में कोई कमी की। आज भी अगर हम सच न बोले, तो भगवान हमें नरक में भी जगह नहीं देंगे। हमारी करुणा गलत नहीं थी। न ही उसमे कोई खोट था। अरे कमी तो हमारे बेटे में थी। उसने न तो कभी किसी औरत की इज्जत की और न ही अपनी बीवी की कदर की और हम बेटे के प्यार में इतने अंधे हों गए कि उसके हर पाप के मूक भागीदार बनते गए। ऊपर से बहू को हर बात का दोषी ठहराते रहे। भगवान हमें माफ कर देना। हमसे बहुत बड़ी गलती हो गई... हमारी बहू चरित्रहीन नहीं थी”, न जाने अचानक आज अचानक बड़ी दादी अपने पाप के घड़े का बोझा नहीं सह पाईं या उनकी आंतरिक चेतना जाग गई कि उनकी ज़ुबान से सच्चाई फूट पड़ी।

सब आश्चर्य से बड़ी दादी को देखने लगे और कानाफूसी करने लगे। मेरा चेहरा गुस्सा से तिलमिला उठा। जीते जी चाची की किसी ने एक न सुनी और न ही किसी ने उनका समर्थन किया और आज जब वो चली गई तब बड़ी दादी माफ़ी की दुहाई माँग महान बनने का ढोंग कर रही हैं।

"बड़ी दादी, आपने ये बातें चाची से जिंदा में क्यों नहीं की ??? काश! अगर आप ये बातें उनसे जिंदा में कहतीं तो वो आज आप सभी के द्वारा दिए गए झूठे चरित्रहीन के तमगे को लेकर इस दुनिया से रुखसत न हुई होतीं", मैंने अपने आंसुओं को पोंछते हुए बड़ी दादी को घूरते हुए कहा और वहाँ से चली गई।

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